कल अचानक आंधियों के गांव में जाना हुआ
दीप हर घर में जला देखा तो मैं हैरां हुआ
नहीं था आंधियों के घर हवा का वेग
रसरंगमय वातावरण सुरभित
निर्द्वंद्व थी हर दीप की बाती
उल्लास था--
गांव के हर द्वार आंगन में
अठखेलियों में मगन था बचपन
हर चेहरे पर दमकता था दरपन
लाड़-प्यार और विनोद-चुहल की चहक थी
यौवन की गुनगुन और रुनझुन की महक थी
हतप्रभ खड़ा मैं सोचने लगा--
क्यों नहीं दिखता यहां जीवन का संघर्ष
खीज, बौखलाहट और समय से दुर्घर्ष
पसीने की चिपचिपाहट
देह की थकन
भूख की बिलबिलाहट
पेट की जलन
पैरों की बिंवाई, हाथों की ठेक
देह की खुरसट में लहू की रेख
होंठों की पपड़ी पर तड़पती प्यास
डूबती आंखों में जीवन की आस
लू की जलन में छाया का सुख
टप-टप छत और अभावों का दुख
भूख से व्याकुल ममता का त्याग
चीख और चिल्लाहट, आंसुओं का राग।
तभी एक महात्मा ने
कंधे पर हाथ रखकर पूछा :
वत्स, क्या देखते हो?
क्यों हो दुखी और क्या सोचते हो?
मैंने कहा, महात्मन!
आहत हूं, समाज के वर्ग भेद से
छुआछूत, जातपांत, ऊंच-नीच से
एक ओर सुविधाओं का अंबार है
दूसरी ओर आंसुओं की भरमार है
मैं खड़ा-खड़ा
इस सम्पन्न समाज को निहार रहा हूं
वर्गभेद के कारण और निवारण पर विचार रहा हूं
मैं देख रहा हूं कमेरों और लुटेरों की दुनिया का फ़र्क
किस सफाई से रचा है यह स्वर्ग और नर्क
कमेरे मेहनत से करते हैं उत्पादन
बनिकों का गणित करता, उसका निष्पादन
कैसा यह व्याकरण, कैसा यह जादू
कमेरे की कुंडली में जम जाता राहू
कमेरा रह जाता है नंगे का नंगा
नहीं लेता बेचारा किसी से भी पंगा
उसकी तो थाती है केवल उच्छवास
कल होगा अपना--यह हौसला-विश्वास
सदियों से डगर यह चली आ रही है
नहीं लीक मिटती नज़र आ रही है
आप ही बताएं महात्मन
ये अन्याय क्यों है?
जो करे अन्न पैदा वही भूखा क्यों है?
महात्मा मुस्कराए धीरे से बोले--
शांत बेटे शांत!
मत करो मन को बिलकुल भी क्लांत
विधि का विधान सब
है कर्मों का लेखा
मत ना करो तुम तनिक भी परेखा
सुनो मैं कहानी सुनाता हूं तुमको
गुन सको तो गुनना, बताता हूं तुमको
थे दो गरीब किस्मत के मारे
दर-दर भटकते थे दोनों बेचारे
न मिली चाकरी न मिला कोई धंधा
उन्हें घूरता शक से हर कोई बंदा
सोना भी हो जाता था उनके हाथों में मिट्टी
किस्मत की उनसे ऐसी थी कुट्टी
जर्जर वसन चाम उनके थे सूखे
अधपेट बेचारे रहते थे भूखे
जूते न चप्पल सदा पैर नंगे
दुतकारे जाते थे वे भीखमंगे
उनमें से एक ने
एक दिन बिचारा
कर्म से यह जीवन
क्यों न जाए सुधारा!
लिखी अपने हिस्से में जो तन पर लंगोटी
नहीं भाग्य में है जो भरपेट रोटी
कंटकों पर ही चलना है जब किस्मत में अपने
तो देखें ही क्यों हम असंभव से सपने
सुलभ जो भी हो जाए प्रभु की कृपा से
उसे हर्ष से हम
लगावेंगे माथे।
उस रंक ने यूं मनन करके गहरा
कहा सब जनों से--हटा धुंध गहरा
क्षमा से बड़ा सुख न दुनिया में कोई
क्षमा ही दिलाए, चित्त की शांति खोई
दया कीजिए निर्बलों, निर्धनों पर
दया कीजिए मूक जीव-जन्तुओं पर
क्रोध करके कलुष अपने मन को न कीजे
क्रोध के ताप में होम शांति न कीजे
लालच बुरी है बला मेरे भाई
पापों की गठरी है इसमें समाई
व्यापार का सिर्फ यह फलसफा हो
आटे में नमक की तरह बस नफा हो
कमाई का एक हिस्सा करो दान भाई
पुण्य से ही होगी खुद की भलाई
भूखा न लौटे, कोई द्वारे पर आकर
गिरे को उठाओ ममता दिखाकर
पीर दूजे की हरने में जो मन लगाए
संत और महात्मा वह शख्स कहाए।
बेटे!
लोगों को भा गई उस रंक की हर बात
जो रहता था मगन ईश-भक्ति के साथ
मुनी का दिया दर्जा लोगों ने उसको
जो कल तक था व्याकुल, तृष्णा थी जिसको
कर्म से उस रंक ने अपनी दुनिया संवारी
गुमनाम था जो हुआ अब हजारी
इशारे पर उसके धन-धान्य बटते
कदमों में मुद्राओं के अंबार लगते
किन्तु भाग्य में था अधपेट रहना
बिन वसन नंगे पैरों ही चलना
वह सिलसिला तो तनिक भी न बदला
किन्तु कर्मों से उसने पद अपना बदला
भूख-प्यास को उसने नियमों में बांधा
पादुका बिन यात्रा से खुद को है साधा
कठिन साधना से कर सरल अपने मन को
शांति का संदेश दिया जन-जन को
उसको मिली जग में गुरु पद की सत्ता
दिनों दिन बढ़ी उसकी जग में महत्ता।
बेटे!
मिलेगा वही, जो लिखा भाग्य में है
इस कहानी से चाहो तो तुम खुद को मथ लो
कर्म से निज जीवन चाहो तो बदलो।
किन्तु सांसारिक ज्ञान है यह मुझसे कहता
क्यों व्यर्थ की भावनाओं में तू बहता
भय है घुसा हर आदमी के भीतर
भय ने ही गढ़ा है यह काल्पनिक ईश्वर
आदमी ने ही रचे हैं ये सामाजिक विधान
उसने ही ताने हैं ऊंच-नीच के वितान
प्रकृति की संपदा है सबके लिए
जिसका जीवन है जितना वो तब तक जिए
है शाश्वत विधान
कि ताकतवर ही करता है कमजोर का शिकार
कमजोर के वश में है बस चीख-पुकार
इसलिए ताकतवर बनो
दुनिया को ताकत से हनो।
फ़लसफ़े ज़िन्दगी के बिखरे पड़े हैं
सलमे-सितारे सभी में जड़े हैं
कोई फ़लसफ़ा कहता--ताकत की दुनिया
कोई कहता--गुनिया की है सिर्फ दुनिया
प्रकृति का करिश्मा जताता है कोई
किस्मत का लिक्खा बताता है कोई
मगर मेरी बुद्धि में कुछ न समाए
किसे सत्य मानूं समझ में न आए।
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