8 सितंबर, 2008, दिन सोमवार, समय 1:40 बजे दोपहर, स्थान 55 सेक्टर-1, रोहतक। हरियाणा सरकार द्वारा ‘सूर पुरस्कार’ से सम्मानित डॉ. हरिश्चन्द्र वर्मा से मैंने साक्षात्कार की बाबत कई दिन पूर्व समय निर्धारित कर लिया था। रविवार को भी मैंने उन्हें स्मरण करा दिया था कि सोमवार को मैं दस-साढ़े दस बजे तक उनके निवास पर पहुंच जाऊंगा। मैंने सोच रखा था कि मैं साढ़े सात बजे घर से निकल लूंगा। रोहतक का दो घंटे का रास्ता है, अत: साढ़े नौ तक पहुंच जाऊंगा और हर हालत में दस-साढ़े दस बजे तक डॉ. हरिश्चन्द्र वर्मा के यहां होऊंगा। लेकिन मैं घर से ही साढ़े आठ बजे निकल पाया। रास्ते में यातायात जाम मिला, इसलिए रोहतक बारह बजे पहुंचा। डॉ. वर्मा का घर मैंने देखा नहीं था, इसलिए मैंने बस अड्डे से फोन किया और उनसे घर की लोकेशन पूछी। उन्होंने मुझे बताया कि टैम्पो में बैठकर दिल्ली बाईपास पहुंचो, वहां सेक्टर एक के लिए चलोगे तो दाएं हाथ के पहले मोड़ के अंदर जाकर 55 नंबर कोठी है। मैंने ऐसा ही किया। टैम्पो से उतरकर मैं सेक्टर एक के लिए चल दिया। दूर से मुझे दिखाई दिया कि पहले ही मोड़ पर कोई ठिगना-सा व्यक्ति किसी का इंतजार कर रहा है। मेरे मन का विश्वास बोला कि हो सकता है ये डॉ. वर्मा ही हों और मेरा ही इंतजार कर रहे हों। मैं डॉ. वर्मा से रूबरू परिचित नहीं था। उनका फोटो जरूर देखा था। अब तक अनेक बार उनसे फोन पर बातें हुई थीं। जब मैं सेक्टर एक के मोड़ के नजदीक पहुंचा तो उन ठिगने सज्जन की और मेरी आंखें दो-चार हुर्इं। उन सज्जन के मुख से मेरे लिए संबोधन निकला, ‘सारथीजी नमस्कार।’ मैं भी उन्हें पहचान गया था। अत: मैंने भी अभिवादन का समुचित उत्तर दिया। दरअसल चंद दिन पहले ही मैंने अपनी कविताओं की सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘कहीं कुछ जल रहा है!’ उन्हें भेजी थी, उसमें मेरा फोटो छपा हुआ है। शायद उसी आधार पर डॉ. वर्मा ने मुझे पहचान लिया था।...डॉ. वर्मा के साथ मैं उनके निवास पर पहुंचा। थोड़ी औपचारिक बातें होने और जलपान के बाद मैंने डॉ वर्मा से कहा, ‘वर्माजी, कृपया अपनी सभी प्रकाशित पुस्तकें मेरे समकक्ष ले आएं, मैं उनका अवलोकन करना चाहूंगा।’ वर्माजी ने अपनी पुस्तकें मेरे सामने मेज पर लाकर सजा दीं। मैं धीरे-धीरे उन पुस्तकों की भूमिका और टिप्पणियों को पढ़ने लगा। इसमें मुझे लगभग एक घंटा लग गया। उसके बाद मैंने साक्षात्कार शुरू कर दिया।
प्रश्न--आपमें साहित्यिकता का जन्म कैसे हुआ?
उत्तर--मेरा जीवन शुरू से ही विषम परिस्थितियों में व्यतीत हुआ। एक साधारण कृषक परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता अत्यंत प्रतिभाशाली थे। यद्यपि वे मात्र मैट्रिक पास ही थे। इसके बावजूद वे हिन्दी, उर्दू, फारसी और अंग्रेज़ी भाषाओं में पूर्णत: निष्णात थे। उन्हें दीवान-ए-ग़ालिब पूरा कंठस्थ था। फारसी के कवि शेख सादी की ‘गुलिस्तां’ और ‘बोस्तां’ भी उन्हें याद थीं, जिन्हें वे गुनगुनाते रहते थे। उनके इस काव्य-प्रेम ने मुझे कविता की ओर प्रवृत्त किया और मैं छठी कक्षा से ही काव्य-रचना करने लगा था। सौभाग्य से मेरी रचनाएं कानपुर से प्रकाशित ‘हिन्दी मिलाप’ में छपती रहीं।...प्रारंभिक रचनाएं मैं अपने गुरु विद्यारत्न शर्मा ‘प्रभात’ जी को दिखलाता था, वे स्वयं बहुत अच्छे कवि थे। उनसे प्रेरणा पाकर मैंने बचपन में ही ‘शबरी’ नाम का लघु खंड काव्य ब्रजभाषा में लिखा था। हालांकि वह पांड़ुलिपि अब अनुपलब्ध है।
आपकी पहली अपरिपक्व रचना क्या थी?
मेरी पहली अपरिपक्व रचना एक भजन रूपी कविता थी : ‘जय गोवर्धन गिरधारी, तुम रक्षा करो हमारी।’ यह मैंने तब लिखी थी जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था।
आपकी वह पहली परिपक्व रचना कौन-सी है जिसने आपको प्रशंसा भी दिलाई और जिसे लिखकर आपको आत्मसंतुष्टि भी हुई?
परिपक्व अवस्था में मेरी जो पहली कविता लिखी गई वह स्नातक स्तर पर लिखी गई। इस कविता में मैंने मेरठ कालेज, मेरठ में आयोजित वार्षिक कवि सम्मेलन में सुनाया था। इस कविता का मुखड़ा था ‘मंज़िल खुद होगी मज़बूर’। सभी ने तब मेरी इस कविता को सराहा था। वह रचना मुझे स्वयं भी अच्छी लगी थी।
साहित्य के क्षेत्र में अपने-आपको मूलत: आप क्या मानते हैं?
प्राथमिक रूप में तो मैं स्वयं को शोधक और समालोचक ही मानता हूं, क्योंकि यह क्षेत्र अध्यापन से जुड़ा हुआ है। मेरी बहुत सारी मेधा-बुद्धि तीन शोध प्रबंध लिखने में ही खप गई है। पहले मैंने ‘संस्कृत कविता में रोमांटिक प्रवृत्ति’ शीर्षक से शोध प्रबंध लिखा, जिसमें ऋग्वेद, से लेकर 12वीं शताब्दी के गीत-गोविन्द तक की सभी संस्कृत कविताओं का रोमांटिक प्रवृत्ति की दृष्टि से मूल्यांकन किया है। मेरा दूसरा शोध प्रबंध हिन्दी विषय में पीएचडी से संबंधित है, जिसका शीर्षक है ‘नई कविता के नाट्य-काव्य’। अंत में मैंने डी.लिट् के लिए शोध प्रबंध लिखा जिसका शीर्षक है ‘तुलसी साहित्य के सांस्कृतिक आयाम’। उपर्युक्त तीन शोध प्रबंधों के अतिरिक्त मैंने ‘अंधायुग : एक विवेचन’, ‘साहित्य चिंतन की नई दिशाएं’ आदि आठ समालोचनात्मक ग्रंथ लिखे हैं। ‘अंधायुग : एक विवेचन’ पर 1974 में भाषा-विभाग हरियाणा द्वारा प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। समालोचनलात्मक ग्रंथों के साथ ही मैंने स्थाई महत्व के कुछ ग्रंथ भी लिखे, यथा--हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी भाषा और भाषा विज्ञान, भारतीय काव्य शास्त्र और शोध प्रविधि।
साहित्य की वे कौन-सी पुस्तकें हैं जिनकी अमिट छाप आज भी आपके मन-मस्तिष्क में है?
प्रारंभ से ही मेरा जीवन-दर्शन, संकल्प, आस्था और प्रगति आदि तत्वों पर आधारित रहा है। इस दिशा में मुझे सर्वाधिक ऊर्जा मिली प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक सेमुअल इस्माइल की पुस्तक ‘सेल्फ हैल्फ’ से। इस पुस्तक ने मुझे इतना प्रभावित किया कि इसके सौ वाक्य मुझे कंठस्थ हो गए और वे मेरे जीवन पथ के प्रेरणा स्रोत भी सिद्ध हुए। साहित्यिक चिंतन को ऊर्जा प्रदान करने वाली संजीवनी शक्ति के रूप में प्रस्तुत हुई आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पुस्तक ‘चिन्तामणि’, जिसे मैंने अनगिनत बार पढ़ा और इसके अनेक सूत्रों को आत्मसात किया।
साहित्य के क्षेत्र में आपके पथ-प्रदर्शक और मार्गदर्शक कौन-कौन रहे?
साहित्य के क्षेत्र में मेरे पथ-प्रदर्शक और मार्ग-निर्देशक रहे श्री विद्यारत्न ‘प्रभात’, डा. रामप्रकाश अग्रवाल, डा. रामेश्वर लाल खंडेलवाल, आचार्य विनयमोहन शर्मा तथा डा. शिवराज शास्त्री।
आप मार्क्सवादी विचारधारा से भी कभी रूबरू हुए?
मुझे मार्क्सवाद को पढ़ने, पढ़ाने और समझने के अवसर निरंतर प्राप्त हुए।
मार्क्सवादी विचारधारा ने आपको प्रभावित किया?
नहीं।...वैसे मार्क्सवादी विचारधारा अपने आप में एक समतावादी, सामंजस्यमूलक, सद्भावना-प्रेरक, जीवन-व्यवस्था पर केन्द्रित दर्शन है। मार्क्स एक बहुत बड़े ऋषि थे। किन्तु दुर्भाग्य का विषय है कि भारतवर्ष में मार्क्सवादी विचारधारा को हिन्दुत्व-विरोधी, भौतिकतावादी, अध्यात्मविखंडक एक ऐसी जीवन-दृष्टि के रूप में विज्ञापित किया जा रहा है, जो भारत को उसकी सनातन भारतीयता के मार्ग से भटकाने की दिशा में उन्मुख है। मेरी दृष्टि में मार्क्सवादी दर्शन एक जीव-दर्शन न रहकर स्वार्थ-सिद्धि का तुच्छ उपकरण बनकर रह गया है। उसने एक राजनीतिक हथकंडे का रूप धारण कर लिया है, जिसका लक्ष्य है तोड़-फोड़ और जोड़-तोड़। इनके प्रगतिशील सिद्धान्त अपने दल की प्रगति और जैसे-तैसे सत्ता हथियाने पर केन्द्रित हैं। ये आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि पर केन्द्रित, प्रजातान्त्रिक, सनातन जीवन-दर्शन को साम्प्रदायिक कहकर लांछित करते हैं।...मैं भारत में ही एक ऐसे मार्क्सवादी को जानता हूं जिसे मैं ऋषि की श्रेणी में सम्मिलित करता हूं। उस मेधावी, विशाल हृदय, दृष्टि सम्पन्न, साहित्य-साधक का नाम है डॉ. रामविलास शर्मा। इनका चिन्तन वैदिक साहित्य, विशेषत: ऋग्वेद, उपनिषद तथा गीता से ऊर्जा पाता है। इन्होंंने गांधारी की भांति अपनी आंखों पर जान-बूझकर भौतिकताजनित माया-मोह की कोई पट्टी नहीं बांध रखी। इनका चिन्तन भारतीय मनीषा से अभिसिंचित गीता के समत्व योग से अनुप्राणित सर्वकल्याणकारी विचारधारा पर आधारित है। अंतिम दिनों में उस मनीषी ने ‘भारतीय सौन्दर्यबोध और तुलसी’ शीर्षक से 500 पृष्ठों का महान् गं्रथ पूरा करके ही प्राण त्यागे।
आप क्यों लिखते हैं?
मेरे लिखने के दो उद्देश्य हैं एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। मैं गति, शक्ति और मुक्ति को जीवन की प्रगति का पर्याय मानता हूं। यदि मनुष्य संकल्पनिष्ठ हो और आशा, विश्वास और आस्था के साथ निरंतर कर्म में जुटा रहे तो वह अपने तथा दूसरों के जीवन का कल्याण कर सकता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर मैंने कई कविताएं लिखी हैं जिनमें प्रमुख है ‘पगडंडी’ उसकी एक चौपदी द्रष्टव्य है :
हाथ पसारे कभी नहीं संकल्पों ने/गर्वीले मदमस्त सहारों के आगे।
जीवन-पट बुन दिया साधना-करघे से/ सांसें सब बन गर्इं बुनावट के धागे।
दूसरा उद्देश्य है नकारात्मक। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैंने बाधाओं, अड़चनों, विसंगतियों, और विद्रूपताओं पर करारे कषाघात करने के उद्देश्य से हास्य-व्यंग्य की सृष्टि की। चमचा पुराण, चिट्ठी मिस स्वीटी की आदि हास्य व्यंग्य लेखों में विकृति पर प्रहार करते हुए मानव प्रवृत्ति को सकारात्मक दिशा में उन्मुख किया गया है।
आपकी रचना-प्रक्रिया क्या है?
मैं जीवन में दो ही तत्व मानता हूं। परिस्थिति बाहर है तो मन:स्थिति भीतर है। मैं बाहर की परिस्थिति अथवा प्रसंग से अनुप्राणित होकर ही मुख्यत: रचना कार्य में प्रवृत्त होता हूं। मेरा सारा व्यंग्य साहित्य, दोनों उपन्यास तथा अधिकतर कविताएं इसी प्रक्रिया पर आधारित हैं। दूसरा तत्व है आंतरिक मनोदशा या मन:स्थिति। कई बार मैं आंतरिक मनोदशा या विचार अथवा चिन्तन को केन्द्र में रखकर रचनाकार्य में संलग्न होता हूं। मेरी जितनी आदर्शमूलक कविताएं हैं वे इसी कोटि में आती हैं। उदाहरण के लिए ‘संस्कृति का सूरज’ कविता में पूर्व निधारित भारतीय संस्कृति के आदर्शों को केन्द्र में रखकर ही विस्तार किया गया है।
आप बैठकर, लेटकर, मेजकुर्सी पर, दीवार के सहारे टेक लगाकर, गाव-तकिया के सहारे आदि में से किस प्रकार लिखते हैं?
मेरे लेखन का एक ही ढंग है और वह है चारपाई अथवा तख्त पर बैठकर लिखना। मेजकुर्सी पर आसीन होकर मैं विवशता की स्थिति में ही लिखता हूं।
लेखन के बीच में कभी मूड उखड़ जाए तो फिर मूड बनाने के लिए आप क्या उपाय करते हैं?
यह ठीक है कि कई बार मानसिकता के शिथिल होने पर कई दिन तक रचनाकर्म टलता जाता है और भारी विवशता का सामना करना पड़ता है। किन्तु जितना समय बीतता जाता है, उतना ही भीतर दबाव और तनाव बढ़ता जाता है। एक बिन्दु वह आता है जब वह तनाव रचनात्मक रूप लेकर प्रतिभा के विस्फोट में बदल जाता है।...जो रचना दस दिन में लिखी जानी थी, वह दो-तीन दिन में ही अपने पूर्ण उत्कर्ष के साथ प्रकट हो जाती है। यह प्रकाशन निश्चय ही बहुत चौंकाने वाला होता है।...मुझे मूड बनाने के लिए किसी सत्संग की, किसी चाय-पार्टी की या पान-सुपारी, लौंग -इलाइची की आवश्यकता नहीं होती।
आपके लेखन का मूल स्वर क्या रहा है?
आशावादी और व्यंग्यात्मक।
समालोचना के क्षेत्र में आपके आदर्श कौन रहे?
मैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की सहृदयता, सात्विकता, सादगी, स्वच्छंदता और गहन साहित्यिक और समालोचक अंतदृष्टि से विशेष रूप से प्रभावित हुआ। इसी प्रकार साहित्य-जगत के यशस्वी और मनस्वी चिंतक, शोधक और समालोचक डा. नगेन्द्र के व्यक्तित्व और कृतित्व से गहराई से प्रभावित हुआ। कई साक्षात्कारों में मेरा इन दोनों महानुभावों से संपर्क हुआ और मैं यह देखकर विशेष मुग्ध रहा कि ये दोनों ही महानुभाव अपनी विद्वता, सत्ता और महत्ता को सामने वाले प्रत्याशी पर कभी थोपते नहीं थे। उसे बोलने का, आत्माभिव्यक्ति का पूरा अवसर देते थे। इसी प्रकार डा. सत्येन्द्र की सादगी, सच्चाई और न्यायप्रियता से विशेष अनुप्राणित रहा हूं। वैसे मेरी समालोचना-दृष्टि को सर्वाधिक प्रेरित और प्रभावित करने वाले रहे आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल।
हिन्दी आलोचना की वर्तमान स्थिति के बारे में आपकी क्या राय है?
पहले आलोचना (समालोचना) एक स्वतंत्र विधा थी। इसमें किसी साहित्यिक कृति के गुण-दोषों का युक्तिसंगत, तटस्थ, गंभीर विश्लेषण और मूल्यांकन किया जाता था। श्री गुलाबराय, शचीरानी गुर्टू, विशम्भर ‘मानव’, शांतिप्रिय द्विवेदी, शिवदानसिंह चौहान आदि जाने-माने समालोचक थे। आगे चलकर समालोचना का अस्तित्व शोध में समाने लगा। जो उत्कृष्ट कोटि के शोध-प्रबंध होते थे, उनमें उत्कृष्ट कोटि की समालोचना के भी दर्शन होने लगे। किन्तु समालोचना की स्वतंत्र सत्ता भी बनी रही। कई शोधक साथ में समालोचक भी थे। डा. नगेन्द्र प्रसिद्ध शोधक थे। किन्तु उन्होंने ‘सुमित्रानंदन पंत’ और ‘साकेत : एक अध्ययन’ जैसे उत्तम समालोचना ग्रंथ भी लिखे। वर्तमान काल में पुस्तकों की संक्षिप्त समीक्षाएं तो लिखी जाती हैं, किन्तु समालोचनाएं प्राय: नहीं लिखीं जातीं। समीक्षाएं प्राय: स्तुतिपरक होती हैं। किन्तु कभी-कभी कुछ पत्रिकाओं में स्तरीय समीक्षाओं के दर्शन होते हैं। अब समालोचना समीक्षा में सिमटकर रह गई हैं। शोध की स्थिति निराशाजनक है, तो उसमें निहित समालोचना-दृष्टि लुप्तप्राय: है।
युवा पीढ़ी के लेखकों को आप क्या टिप्स देना चाहेंगे?
मैं जीवन और साहित्य को सतही और आरोपित अवधारणाओं के मायाजाल से मुक्त रखने के पक्ष में हूं। इसीलिए आधुनिकतावाद, अतिआधुनिकतावाद, उत्तर आधुनिकतावाद, नारी-विमर्श, दलित-विमर्श, साम्यवाद, पूंजीवाद आदि के मकड़जाल से मुक्त रहकर व्यक्ति, परिवार, समाज, प्रदेश, देश, और विश्व के उत्कर्ष और कल्याण को केन्द्र में रखकर देश और देश की संस्कृति का अभुत्थान करना ही नए और पुराने सभी साहित्यकारों का लक्ष्य और धर्म है। इसीलिए मैं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ही जीवन और साहित्य का लक्ष्य मानता हूं।
साहित्य-क्षेत्र में आपकी अधूरी चाह क्या है?
मेरे मन में बहुत दिनों से विचार था कि मैं गुरु गोविन्दसिंह, राणा प्रतापसिंह, छत्रपति शिवाजी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, शहीद भगतसिंह, वीर सावरकर आदि में से किसी पर खंड काव्य अथवा माहाकाव्य की रचना करूं। लेकिन यह संभव नहीं हो पाया, चूंकि इसके लिए लंबे अखंड अवकाश की आवश्यकता है, जो अनेक व्यस्तताओं के कारण मुझे सुलभ नहीं हुआ।
हिन्दी में साहित्य लेखन से जीविकोपार्जन किया जा सकता है?
सामान्यत: नहीं। इसके लिए विरल प्रतिभा अपेक्षित है। श्री भगवती चरण वर्मा, श्री विष्णु प्रभाकर, श्री नागार्जुन, जैसे तपस्वी दुर्लभ हैं।
अंग्रेज़ी में साहित्य की पुस्तकें लाखों में छपती हैं, लेखक एक दिन में हीरो हो जाता है, हिन्दी में ऐसा क्यों नहीं है?
भारत में अभी अंग्रेज़ियत के संस्कार जीवित हैं। अत: दिखाने के लिए पुस्तकें खरीदने और मेज़ पर या आल्मारी में सजाकर रखने का क्रेज अभी जारी है। अंग्रेज़ी अखबार भी पढ़ने के लिए कम और सजाने-दिखाने के लिए अधिक खरीदे जाते हैं। रही पुस्तकों की गुणवत्ता की बात तो वर्तमानकाल में कोई अंग्रेज़ी की पुस्तक राष्ट्रभक्ति, संस्कृति,दर्शन, विश्व-प्रेम, आदि उदात्त आदर्श या संदेश के कारण स्थाई ख्याति अर्जित नहीं कर सकी। अधिकतर ऐसी पुस्तकें भारतीय यथार्थ के नाम पर अश्लीलता परोसती हैं। विदेशी पाठक भी भारत की ऐसी तस्वीर में रस लेकर प्रसन्न होते हैं। ये पुस्तकें प्राय: नाम और दाम कमाने के उद्देश्य से ही लिखी जाती हैं। प्रकाशक भी इनकी चटपटी मसालेदार सामग्री को देखकर इन्हें बड़ी संख्या में छापते हैं। हिन्दी में मृदुला गर्ग क े उपन्यास अपनी इन्हीं तथाकथित विशेषताओं के कारण गर्म जलेबियों की भांति बिकते थे।
आपका जन्म कब, कहां और किसके यहां हुआ?
मेरा जन्म 5 जनवरी 1934 में जिला मेरठ, तहसील हापुड़ के गांव चांदनेर में हुआ। मेरे पिता ठाकुर जुगलकिशोर वर्मा व पिता श्रीमती मोहिनी देवी साधारण कृषक थे।
आपका पालन-पोषण किन परिस्थितियों में हुआ?
हमारे गांव में परिवार सहित किसानों की माली हालत अच्छी नहीं थी, किन्तु सभी जाति के लोगों में पारस्परिक सद्भाव और सामंजस्य था। गांव की स्थिति साधारणतया इस बात से आंकी जा सकती है कि गांव में प्रारम्भिक या प्राथमिक पाठशाला भी नहीं थी। अत: मुझे मिडिल कक्षा तक दो मील दूर स्थित बहादुरगढ़ नामक गांव में जाना पड़ता था। तत्पश्चात गांव से छह किलोमीटर दूर स्थित पब्लिक इंटर कालेज, स्याना (बुलंदशहर) में बारहवीं तक शिक्षा प्राप्त की। गर्मी-सर्दी में नंगे पांव पैदल स्कूल तक जाना और वहां से वापस आना कष्टसाध्य तपस्या थी, जिसे हम गांव के सभी विद्यार्थी सहर्ष सम्पन्न करते थे। आर्थिक तंगी के कारण हम सबकी साधारण वेशभूषा रहती थी और सभी बच्चोें के पांवों में जूतियां नहीं होती थीं। सर्दियों में केवल एक स्वेटर से गुजारा करना पड़ता था। पिताजी सर्विस करते थे, किन्तु दादाजी की मृत्यु के बाद उन्हें भी खेती में ही रमना पड़ा। मैं और मेरा छोटा भाई साथ-साथ एक ही कक्षा में पढ़ते थे और पुस्तकों के एक ही सैट से काम चलाते थे। स्कूल में हम लोग कपड़े के छन्ने में रोटियां और अचार या आलू की चटनी बांध कर ले जाते थे।
आपको मां का ममत्व कितनी मात्रा में मिला?
मेरी मां हालांकि नितान्त अनपढ़ थीं, किन्तु थीं वे बहुत ही प्रतिभाशाली। वे स्वेटर से लेकर दरी, कालीन, निवाड़ तक स्वयं अपने हाथ से बुनती थीं। हमारी मां बहुत ही ममतामयी थीं। यद्यपि आािर्थक तंगी थी, किन्तु खानपान, दूध-दही की कोई कमी नहीं थी।...माताजी खाना खिलाने और हमारा पालन-पोषण, संवर्धन करने में अपनी पूरी ममता उंडेल देती थीं। उनके साथ हमें ममता की मूर्ति दादाजी का भी विरल स्नेह और लाड़-चाव सुलभ रहता था। माताजी बीमारी की अवस्था में भी हमें स्कूल के लिए समय पर भोजन तैयार करके दे देती थीं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमें बिना खाने के स्कूल जाना पड़ा हो।...कई बार ऐसा भी हुआ कि स्कूल के लिए फीस की व्यवस्था नहीं होती थी। ऐसे में माताजी आपात स्थिति के लिए बचाए गए और विधिपूर्वक दीवार में गाड़े गए चांदी के रुपयों को खुरपी से खोदकर बाहर निकालतीं। इस प्रकार फीस और पढ़ाई के खर्चों का बंदोबस्त करने में वे किसी प्रकार की कोई कसर नहीं छोड़ती थीं। ...एक बार बचपन में मेरे चेचकग्रस्त होने पर मेरी आंखें बिलकुल बंद हो गई थीं, माताजी को शंका थी कि मेरी दोनों आंखें चली जाएंगी। वे मेरे सिरहाने बैठी हुई बीजना से हवा करती रहतीं और फ़कीर-बाबाओं से विभूति लेकर बदले में मनमानी दक्षिणा देकर आंखों की रक्षा के लिए दुआ मांगतीं।
आपने अपनी शैतानी पर मां की डांट भी तो खाई होगी?
हां, चौथी कक्षा तक मैं बहुत नटखट था। उसके बाद मुझमें एकदम बदलाव आ गया। छोटेपन में जब कोई नुकसान या बिगाड़ हो जाता या मेरी शरारत के कारण माताजी की कोई चीज़ टूट-फूट जाती तो माताजी मेरे पीछे कभी यूं ही और कभी डंडा लेकर दौड़तीं तो मैं तत्काल घर के आंगन में खड़े नीम पर चढ़ जाता। इस तरह मैं माताजी के आक्रोश और उनके डंडे की परिधि से बाहर हो जाता। इसलिए प्रत्यक्ष पिटाई के अवसर बहुत ही कम आ पाए। कभी यदि उनकी पकड़ में आ भी जाता तो वे एकाध थप्पड़ ही मारती थीं।...मां बहुत भावुक भी थीं। मुझे एकाध थप्पड़ मारने के बाद वे बहुत देर तक पछतातीं और कई बार रोने लगतीं। उस समय मैं भी विगलित हो जाता और उनके चरण छूकर उनसे छमा याचना करता। उनका हृदय तत्काल भर आता जैसे वह मुझे माफ करने के लिए पहले ही तैयार बैठी हों।
आपके पिनता का स्वभाव कैसा था?
मेरे पिताजी बहुत ही गंभीर अथवा संजीदा प्रकार के व्यक्ति थे। उनके मुख-मंडल पर आंतरिक गांभीर्य की गरिमा छायी रहती थी। उनकी विद्वता, प्रतिभा, परिश्रम और सहज उद्वेलित होने वाले प्रेम के सामने किसी प्रकार की शरारत इत्यादि का कोई अवकाश ही नहीं था। वे केवल पिता ही नहीं, एक सहृदय, सुयोग्य अभिभावक, तथा मनस्वी, तपस्वी, और दृष्टि-संपन्न अध्यापक और पथ-प्रदर्शक भी थे। हम सब भाइयों को शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति, अनुशासन के संस्कारों की दीक्षा उन्हीं से प्राप्त हुई।
आपके पिता आप पर क्रोध भी तो करते होंगे?
कभी-कभी अज्ञानवश, नादानी अथवा अनजाने में मुझसे काई भूल-चूक हो जाती थी तो पिताजी सीधे-सीधे डांट-फटकार या पिटाई का प्रश्रय नहीं लेते थे। वे अपनी मर्यादा और गरिमा के अनुसार अपनी भाव-भंगिमाओं और भृकुटियों से ही अपने आक्रोश की बहुत ही कलात्मक ढंग से अभिव्यंजना करते थे। यह अभिव्यंजना किसी भी फटकार या मार से अधिक प्रहारक और प्रभावशाली होती थी। ऐसी स्थिति में हमें अपनी भूल-चूक पर गहराई से चिन्तन करने और पछतावे के साथ-साथ क्षमा-याचना करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं था। इस प्रकार वे अपनी परिवार प्रबंधन की योग्यता के शिखर पर पहुंच जाते थे।
उनके स्नेह की कोई अविस्मरणीय घटना?
जब मैं चौथी कक्षा का छात्र था, तब अचानक चेचक निकल आने से मैं वाार्षिक परीक्षा देने में असमर्थ रहा। उन दिनों चौथी कक्षा प्राइमरी शिक्षा की अंतिम परीक्षा होती थी। यह परीक्षा सरकारी स्तर पर ली जाती थी। पिताजी मेरा पूरा वर्ष अकारथ जाने की शंका से बेहद बेचैन थे और मेरी विवशता पर अनेक आंसू बहाते थे। अंतत: उन्होंने प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक से सम्पर्क साधकर तत्कालीन डिप्टी इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स श्री मंसूर अली के दरबार में गुहार लगाई। भगवत्कृपा से गुहार सुन ली गई। फलत: श्री मंसूर अली ने हापुड़ स्थित अपने कार्यालय में केवल गणित और हिन्दी विषयों की परीक्षा मूल परीक्षा से लगभग एक महीने पश्चात ली। गणित में शत-प्रतिशत और हिन्दी में 92 प्रतिशत अंक प्राप्त करने पर मुझे प्रथम श्रेणी का प्रमाणपत्र प्रदान किया गया। यह प्रकरण पिताजी के स्नेह, साहस, संघर्ष के साथ ही प्रधानाचार्या की संवेदना और श्री मंसूरअली की उदारता और हमदर्दी का ज्वलंत उदाहरण है।
आपने कालेज शिक्षा कहां तक प्राप्त की?
यद्यपि घरेलू साधन-स्रोतों के हिसाब से हम दोनों भाइयों के लिए इंटरमीडिएट से आगे पढ़ने का कोई अवकाश नहीं था किन्तु पिताजी के साहस और प्रोत्साहन से हम लोगों के लिए उच्च शिक्षा भी सहज-संभव हो सकी। पिताजी ने हमको बी.ए. की शिक्षा ग्रहण करने के उद्देश्य से 1953 में मेरठ कालेज, मेरठ में प्रवेश दिला दिया। हम दोनों भाई खाने-पीने के अतिरिक्त और सब खर्चे मिलाकर पिताजी द्वारा भेजे गए केवल पचास रुपए मासिक में ही काम चलाते थे। खर्चे की पूर्ति के लिए हम दोनों ही भाई ट्यूशन के माध्यम से कुछ राशि अर्जित करते थे। छोटा भाई हाईस्कूल की एक छात्रा को इंगलिश पढ़ाता था। यही क्रम एम.ए. में भी चलता रहा। एम.ए. में तो मैं एस.ए. की छात्रा को उसके घर हिन्दी भाषा और साहित्य पढ़ाने जाता था। इस प्रकार हम दोनों भाइयों का छात्रावास का व्यय भी आसानी से पूरा हो जाता था। अंच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के कारण कालेज की फीस हम दोनों भाइयों की माफ रहती थी।
युवावस्था में आपने किसी से प्रेम की पींगें भी तो बढ़ाई होंगी?
बचपन से हम दोनों भाई बहुत ही अंतर्मुखी और संकोचशील थे। यह संकोच की स्थिति बाद तक भी बनी रही। हम अपने कुछ अंतरंग मित्रों से ही वार्तालाप कर पाते थे। अपने साथ की किसी छात्रा से बात करने का साहस हमारे अंदर था ही नहीं। अत: प्रेम-प्रसंग का तो प्रश्न ही नहीं उठता। जब एक दिन हिन्दी विभाग के अध्यक्ष गुरुवर कृष्णानंद पंत ने मेरे एक लेख पर मुग्ध होकर मुझे अपने घर आने को कहा तो मैं संकोचवश उनके आवास का पता ही उनसे नहीं पूछ पाया। बाद में अपने एक सहपाठी की सहायता से जब मैं जैसे-तैसे उनके घर पहुंचा तो उन्होंने मेरी कथा सुनकर चीफ वार्डन से मिलकर छात्रावास की मेरी फीस माफ़ करवा दी। यह छात्रावास के इतिहास में विरल उदाहरण है।
ऐसा कोई पेड़ नहीं जिसे हवा न लगी हो।...आपने एकतरफा प्रेम तो किया ही होगा?
विपरीत लिंगी के प्रति प्रेमाकर्षण मनुष्य की सहज दुर्बलता भी है और शक्ति भी। शक्ति इसलिए कि यह प्रेमभावना ही समय पाकर कर्तव्यनिष्ठा, देशभक्ति और ईशभक्ति में रूपान्तरित हो जाती है। इसलिए ऋग्वेद के नासकीय सूक्त में कहा गया है कि जब सर्वत्र कुछ भी नहीं था, तब भी अंतरिक्ष में एक तत्व सांस ले रहा था, जिसका नाम काम अथवा प्रेम है। यह काम भावना रूपान्तरणीय है। यदि हम इस काम को किसी व्यवसाय, लक्ष्य की पूर्ति, महान कार्य की दिशा में नियोजित कर दें तो यह काम ही धर्म और साधना का रूप ले लेता है। इसलिए हम दोनों भाइयों की कामशक्ति आर्थिक संकट से जूझने और पढ़ाई में प्रथम आने की धुन में खपती रही और हम निर्विघ्न अविरल प्रेम पथिक की भांति आत्मोथान की पगडंडी पर सतत अग्रसर होते चले गए। उस समय हम दोनों ने जिनती कविताएं लिखीं, वे सब निर्धनता, कृषक-जीवन, मजदूर, अमर शहीद, देशभक्ति पर ही केन्द्रित थीं।
इसका मतलब आपको प्रेमपत्र लिखने का अनुभव तो कतई नहीं होगा?
आपने बिलकुल सही समझा। हम दोनों भाइयों को पत्र लिखने का तो अभ्यास था, किन्तु प्रेमपत्र का विचार तो हमारे स्वप्न में भी नहीं आया।
अपने जीवन में आपने कभी प्रेमपत्र नहीं लिखे?
अपने जीवन में अनेक प्रकार की आशंकाओं, शंकाओं सीमाओं के साथ प्रेमपत्र लिखने का दुस्साहस कभी नहीं बटोर पाया, किन्तु आगे चलकर जब सर्जनात्मक गद्य लेखन में पदार्पण किया तो कई चिट्ठियों के रूप में हास्य-व्यंग्य लेखों की रचना की। मेरे एक हास्य-व्यंग्य संग्रह का शीर्षक ही है ‘चिट्ठी मिस स्वीटी की’। इन चिट्ठियों में प्रेम के क्षेत्र की अनेक दमित वासनाओं, प्रेम लिप्साओं, लालसाओं का बहुत ही मार्मिक, अर्थगर्भित निरूपण हुआ है। इस प्रकार दबा हुआ प्रेम इन चिट्ठियों में रोचक रूप से उजागर हुआ है।
आपका विवाह कब, किससे हुआ और क्या वह पारंपरिक रूप से हुआ?
मेरे विवाह की भी एक विचित्र कहानी है। मेरी सगाई उस समय कर दी गई थी, जब मैं जानता ही नहीं था कि सगाई क्या बला है? उस समय मेरी आयु पांच वर्ष थी। जब मैं दसवीं कक्षा की परीक्षा देकर लौटा तो एक अनपढ़, मासूम कन्या सरलादेवी से 17 जून 1951 को मेरा विवाह कर दिया गया। मेरा विवाह पूरे पारंपरिक ढंग से ही हुआ।
आपने अपनी पत्नी का मुखदर्शन पहली बार कब किया था?
विवाह के पश्चात् जब मैं बी.ए. अंतिम वर्ष का छात्र था, तब मेरा गौना हुआ। तब ही मेरे लिए अपनी पत्नी के प्रथम दर्शन का सुयोग्य घटित हुआ।
आपके जीवन का टर्निंग पाइंट क्या है?
मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक संयोग है क्रिश्चियन कालेज, बटाला (पंजाब) में सन् 1960 में संस्कृत और हिन्दी के प्राध्यापक के रूप में मेरी नियुक्ति।...जब मैं साक्षात्कार के लिए गया था, तब मेरे अतिरिक्त सात महिलाएं भी साक्षात्कार के लिए आई हुई थीं। प््रााध्यापक-चयन समिति में पूरे कालेज के 120 प्राध्यापकों में से 85 प्राध्यापक उसके सदस्य थे। साक्षात्कार कालेज के सभागार में संपन्न हुआ था। मेरा साक्षात्कार 55 मिनट तक चला। मेरे उत्तरों को सुनकर प्राध्यापकगण अपनी प्रतिक्रिया पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे थे। वे सरासर कह रहे थे ‘ही इज ए ब्रिलिएंट चैप, आई स्पीक, सी विल बी सलेक्टेड।’ यही हुआ भी। मैं क्रिश्चियन कालेज के पदाधिकारियों की उस दिव्यता को प्रणाम करता हूं, जिसके वशीभूत होकर उन्होंने ईसाई प्रतियोगियों को छोड़कर प्रतिभा के आधार पर मेरा चयन करना अपनी संस्था के हित में समझा। जब मैं वहां अध्यापनरत था तो एक दिन मैं चौदह ज्योतिषियों के प्रमुख से मिला। उन्होंने मुझे बताया कि एक महीने में ही मेरी नियुक्ति किसी ऊंचे पद पर पूर्व दिशा में होगी। इसी दौरान कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में विशेषत: संस्कृत का प्रश्नपत्र पढ़ाने के लए एक प्राध्यापक की आवश्यकता विज्ञापित हुई। मैंंने अपना आवेदन पत्र भेज दिया और यथा समय मैं साक्षात्कार देने गया तथा सौभाग्यवश चुन लिया गया। अत: बटाला कालेज में क्रिश्चियन कालेज में नियुक्ति मेरे पुरुषार्थ और भाग्य के फलीभूत होने का एक महत्वपूर्ण संयोगस्थली है।