Monday 16 April 2012

गति, शक्ति और मुक्ति जीवन की प्रगति के पर्याय : डॉ. हरिश्चन्द्र वर्मा


8 सितंबर, 2008, दिन सोमवार, समय 1:40 बजे दोपहर, स्थान 55 सेक्टर-1, रोहतक। हरियाणा सरकार द्वारा ‘सूर पुरस्कार’ से सम्मानित डॉ. हरिश्चन्द्र वर्मा से मैंने साक्षात्कार की बाबत कई दिन पूर्व समय निर्धारित कर लिया था। रविवार को भी मैंने उन्हें स्मरण करा दिया था कि सोमवार को मैं दस-साढ़े दस बजे तक उनके निवास पर पहुंच जाऊंगा। मैंने सोच रखा था कि मैं साढ़े सात बजे घर से निकल लूंगा। रोहतक का दो घंटे का रास्ता है, अत: साढ़े नौ तक पहुंच जाऊंगा और हर हालत में दस-साढ़े दस बजे तक डॉ. हरिश्चन्द्र वर्मा के यहां होऊंगा।  लेकिन मैं घर से ही साढ़े आठ बजे निकल पाया। रास्ते में यातायात जाम मिला, इसलिए रोहतक बारह बजे पहुंचा। डॉ. वर्मा का घर मैंने देखा नहीं था, इसलिए मैंने बस अड्डे से  फोन किया और उनसे घर की लोकेशन पूछी।  उन्होंने मुझे बताया कि टैम्पो में बैठकर दिल्ली बाईपास पहुंचो, वहां सेक्टर एक के लिए चलोगे तो दाएं हाथ के पहले मोड़ के अंदर जाकर 55 नंबर कोठी है। मैंने ऐसा ही किया। टैम्पो से उतरकर मैं सेक्टर एक के लिए चल दिया। दूर से मुझे दिखाई दिया कि पहले ही मोड़ पर कोई ठिगना-सा व्यक्ति किसी का इंतजार कर रहा है। मेरे मन का विश्वास बोला कि हो सकता है ये डॉ. वर्मा ही हों और मेरा ही इंतजार कर रहे हों। मैं डॉ. वर्मा से रूबरू  परिचित नहीं था। उनका फोटो जरूर देखा था। अब तक अनेक बार उनसे फोन पर बातें हुई थीं। जब मैं सेक्टर एक के मोड़ के नजदीक पहुंचा तो उन ठिगने सज्जन की और मेरी आंखें दो-चार हुर्इं। उन सज्जन के मुख से मेरे लिए संबोधन निकला, ‘सारथीजी नमस्कार।’ मैं भी उन्हें पहचान गया था। अत: मैंने भी अभिवादन का समुचित उत्तर दिया। दरअसल चंद दिन पहले ही मैंने अपनी कविताओं की सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘कहीं कुछ जल रहा है!’ उन्हें भेजी थी, उसमें मेरा फोटो छपा हुआ है। शायद उसी आधार पर डॉ. वर्मा ने मुझे पहचान लिया था।...डॉ. वर्मा  के साथ मैं उनके निवास पर पहुंचा। थोड़ी औपचारिक बातें होने और जलपान के बाद मैंने डॉ वर्मा से कहा, ‘वर्माजी, कृपया अपनी सभी प्रकाशित पुस्तकें मेरे समकक्ष ले आएं, मैं उनका अवलोकन करना चाहूंगा।’ वर्माजी ने अपनी पुस्तकें मेरे सामने मेज पर लाकर सजा दीं। मैं धीरे-धीरे उन पुस्तकों की भूमिका और टिप्पणियों को पढ़ने लगा। इसमें मुझे लगभग एक घंटा लग गया। उसके बाद मैंने साक्षात्कार शुरू कर दिया।
प्रश्न--आपमें साहित्यिकता का जन्म कैसे हुआ?
उत्तर--मेरा जीवन शुरू से ही विषम परिस्थितियों में व्यतीत हुआ। एक साधारण कृषक परिवार में मेरा जन्म हुआ। मेरे पिता अत्यंत प्रतिभाशाली थे। यद्यपि वे मात्र मैट्रिक पास ही थे।  इसके बावजूद वे हिन्दी, उर्दू, फारसी और अंग्रेज़ी भाषाओं में पूर्णत: निष्णात थे। उन्हें दीवान-ए-ग़ालिब पूरा कंठस्थ था। फारसी के कवि शेख सादी की ‘गुलिस्तां’ और ‘बोस्तां’ भी उन्हें याद थीं, जिन्हें वे गुनगुनाते रहते थे। उनके इस काव्य-प्रेम ने मुझे कविता की ओर प्रवृत्त किया और मैं छठी कक्षा से ही काव्य-रचना करने लगा था। सौभाग्य से मेरी रचनाएं कानपुर से प्रकाशित ‘हिन्दी मिलाप’ में छपती रहीं।...प्रारंभिक  रचनाएं मैं अपने गुरु विद्यारत्न शर्मा ‘प्रभात’ जी को दिखलाता था, वे स्वयं बहुत अच्छे कवि थे। उनसे प्रेरणा पाकर मैंने बचपन में ही ‘शबरी’ नाम का लघु खंड काव्य ब्रजभाषा में लिखा था। हालांकि वह पांड़ुलिपि अब अनुपलब्ध है।
आपकी पहली अपरिपक्व रचना क्या थी?
मेरी पहली अपरिपक्व रचना एक भजन रूपी कविता थी : ‘जय गोवर्धन गिरधारी, तुम रक्षा करो हमारी।’ यह मैंने तब लिखी थी जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था।
आपकी वह पहली परिपक्व रचना कौन-सी है जिसने आपको प्रशंसा भी दिलाई और जिसे लिखकर आपको आत्मसंतुष्टि भी हुई?
परिपक्व अवस्था में मेरी जो पहली कविता लिखी गई वह स्नातक स्तर पर लिखी गई। इस कविता में मैंने मेरठ कालेज, मेरठ में आयोजित वार्षिक कवि सम्मेलन में सुनाया था। इस कविता का मुखड़ा था ‘मंज़िल खुद होगी मज़बूर’। सभी ने तब मेरी इस कविता को सराहा था। वह रचना मुझे स्वयं भी अच्छी लगी थी।
साहित्य के क्षेत्र में अपने-आपको मूलत: आप क्या मानते हैं?
प्राथमिक रूप में तो मैं स्वयं को शोधक और समालोचक ही मानता हूं, क्योंकि यह क्षेत्र अध्यापन से जुड़ा हुआ है। मेरी बहुत सारी मेधा-बुद्धि तीन शोध प्रबंध लिखने में ही खप गई है। पहले मैंने ‘संस्कृत कविता में रोमांटिक प्रवृत्ति’ शीर्षक से शोध प्रबंध लिखा, जिसमें ऋग्वेद, से लेकर 12वीं शताब्दी के गीत-गोविन्द तक की सभी संस्कृत कविताओं का रोमांटिक प्रवृत्ति की दृष्टि से मूल्यांकन किया है। मेरा दूसरा शोध प्रबंध हिन्दी विषय में पीएचडी से संबंधित है, जिसका शीर्षक है ‘नई कविता के नाट्य-काव्य’। अंत में मैंने डी.लिट् के लिए शोध प्रबंध लिखा जिसका शीर्षक है ‘तुलसी साहित्य के सांस्कृतिक आयाम’। उपर्युक्त तीन शोध प्रबंधों के अतिरिक्त मैंने ‘अंधायुग : एक विवेचन’, ‘साहित्य चिंतन की नई दिशाएं’ आदि आठ समालोचनात्मक ग्रंथ लिखे हैं। ‘अंधायुग : एक विवेचन’ पर 1974 में भाषा-विभाग हरियाणा द्वारा प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। समालोचनलात्मक ग्रंथों के साथ ही मैंने स्थाई महत्व के कुछ ग्रंथ भी लिखे, यथा--हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी भाषा और भाषा विज्ञान, भारतीय काव्य शास्त्र और शोध प्रविधि।
साहित्य की वे कौन-सी पुस्तकें हैं जिनकी अमिट छाप आज भी आपके मन-मस्तिष्क में है?
प्रारंभ से ही मेरा जीवन-दर्शन, संकल्प, आस्था और प्रगति आदि तत्वों पर आधारित रहा है। इस दिशा में मुझे सर्वाधिक ऊर्जा मिली प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक सेमुअल इस्माइल की पुस्तक ‘सेल्फ हैल्फ’ से। इस पुस्तक ने मुझे इतना प्रभावित किया कि इसके सौ वाक्य मुझे कंठस्थ हो गए और वे मेरे जीवन पथ के प्रेरणा स्रोत भी सिद्ध हुए। साहित्यिक चिंतन को ऊर्जा प्रदान करने वाली संजीवनी शक्ति के रूप में प्रस्तुत हुई आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की पुस्तक ‘चिन्तामणि’, जिसे मैंने अनगिनत बार पढ़ा और इसके अनेक सूत्रों को आत्मसात किया।
साहित्य के क्षेत्र में आपके पथ-प्रदर्शक और मार्गदर्शक कौन-कौन रहे?
साहित्य के क्षेत्र में मेरे पथ-प्रदर्शक और मार्ग-निर्देशक रहे श्री विद्यारत्न ‘प्रभात’, डा. रामप्रकाश अग्रवाल, डा. रामेश्वर लाल खंडेलवाल, आचार्य विनयमोहन शर्मा तथा डा. शिवराज शास्त्री।
आप मार्क्सवादी विचारधारा से भी कभी रूबरू हुए?
मुझे मार्क्सवाद को पढ़ने, पढ़ाने और समझने के अवसर निरंतर प्राप्त हुए।
मार्क्सवादी विचारधारा ने आपको प्रभावित किया?
नहीं।...वैसे मार्क्सवादी विचारधारा अपने आप में एक समतावादी, सामंजस्यमूलक, सद्भावना-प्रेरक, जीवन-व्यवस्था पर केन्द्रित दर्शन है। मार्क्स एक बहुत बड़े ऋषि थे। किन्तु दुर्भाग्य का विषय है कि भारतवर्ष में मार्क्सवादी विचारधारा को हिन्दुत्व-विरोधी, भौतिकतावादी, अध्यात्मविखंडक एक ऐसी जीवन-दृष्टि के रूप में विज्ञापित किया जा रहा है, जो भारत को उसकी सनातन भारतीयता के मार्ग से भटकाने की दिशा में उन्मुख है। मेरी दृष्टि में मार्क्सवादी दर्शन एक जीव-दर्शन न रहकर स्वार्थ-सिद्धि का तुच्छ उपकरण बनकर रह गया है। उसने एक राजनीतिक हथकंडे का रूप धारण कर लिया है, जिसका लक्ष्य है तोड़-फोड़ और जोड़-तोड़। इनके प्रगतिशील सिद्धान्त अपने दल की प्रगति और जैसे-तैसे सत्ता हथियाने पर केन्द्रित हैं। ये आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि पर केन्द्रित, प्रजातान्त्रिक, सनातन जीवन-दर्शन को साम्प्रदायिक कहकर लांछित करते हैं।...मैं भारत में ही एक ऐसे मार्क्सवादी को जानता हूं जिसे मैं ऋषि की श्रेणी में सम्मिलित करता हूं। उस मेधावी, विशाल हृदय, दृष्टि सम्पन्न, साहित्य-साधक का नाम है डॉ. रामविलास शर्मा। इनका चिन्तन वैदिक साहित्य, विशेषत: ऋग्वेद, उपनिषद तथा गीता से ऊर्जा पाता है। इन्होंंने गांधारी की भांति अपनी आंखों पर जान-बूझकर भौतिकताजनित माया-मोह की कोई पट्टी नहीं बांध रखी। इनका चिन्तन भारतीय मनीषा से अभिसिंचित गीता के समत्व योग से अनुप्राणित सर्वकल्याणकारी विचारधारा पर आधारित है। अंतिम दिनों में उस मनीषी ने ‘भारतीय सौन्दर्यबोध और तुलसी’ शीर्षक से 500 पृष्ठों का महान् गं्रथ पूरा करके ही प्राण त्यागे।
आप क्यों लिखते हैं?
मेरे लिखने के दो उद्देश्य हैं एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। मैं गति, शक्ति और मुक्ति को जीवन की प्रगति का पर्याय मानता हूं। यदि मनुष्य संकल्पनिष्ठ हो और आशा, विश्वास और आस्था के साथ निरंतर कर्म में जुटा रहे तो वह अपने तथा दूसरों के जीवन का कल्याण कर सकता है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर मैंने कई कविताएं लिखी हैं जिनमें प्रमुख है ‘पगडंडी’ उसकी एक चौपदी द्रष्टव्य है :
हाथ पसारे कभी नहीं संकल्पों ने/गर्वीले मदमस्त सहारों के आगे।
जीवन-पट बुन दिया साधना-करघे से/ सांसें सब बन गर्इं बुनावट के धागे।
दूसरा उद्देश्य  है नकारात्मक। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैंने बाधाओं, अड़चनों, विसंगतियों, और विद्रूपताओं पर करारे कषाघात करने के उद्देश्य से हास्य-व्यंग्य की सृष्टि की। चमचा पुराण, चिट्ठी मिस स्वीटी की आदि हास्य व्यंग्य लेखों में विकृति पर प्रहार करते हुए मानव प्रवृत्ति को सकारात्मक दिशा में उन्मुख किया गया है।
आपकी रचना-प्रक्रिया क्या है?
मैं जीवन में दो ही तत्व मानता हूं। परिस्थिति बाहर है तो मन:स्थिति भीतर है। मैं बाहर की परिस्थिति अथवा प्रसंग से अनुप्राणित होकर ही मुख्यत: रचना कार्य में प्रवृत्त होता हूं। मेरा सारा व्यंग्य साहित्य, दोनों उपन्यास तथा अधिकतर कविताएं इसी प्रक्रिया पर आधारित हैं। दूसरा तत्व है आंतरिक मनोदशा या मन:स्थिति। कई बार मैं आंतरिक मनोदशा या विचार अथवा चिन्तन को केन्द्र में रखकर रचनाकार्य में संलग्न होता हूं। मेरी जितनी आदर्शमूलक कविताएं हैं वे इसी कोटि में आती हैं। उदाहरण के लिए ‘संस्कृति का सूरज’ कविता में पूर्व निधारित भारतीय संस्कृति के आदर्शों को केन्द्र में रखकर ही विस्तार किया गया है।
आप बैठकर, लेटकर, मेजकुर्सी पर, दीवार के सहारे टेक लगाकर, गाव-तकिया के सहारे आदि में से किस प्रकार लिखते हैं?
मेरे लेखन का एक ही ढंग है और वह है चारपाई अथवा तख्त पर बैठकर लिखना। मेजकुर्सी पर आसीन होकर मैं विवशता की स्थिति में ही लिखता हूं।
लेखन के बीच में कभी मूड उखड़ जाए तो फिर मूड बनाने के लिए आप क्या उपाय करते हैं?
यह ठीक है कि कई बार मानसिकता के शिथिल होने पर कई दिन तक रचनाकर्म टलता जाता है और भारी विवशता का सामना करना पड़ता है। किन्तु जितना समय बीतता जाता है, उतना ही भीतर दबाव और तनाव बढ़ता जाता है। एक बिन्दु वह आता है जब वह तनाव रचनात्मक रूप लेकर प्रतिभा के विस्फोट में बदल जाता है।...जो रचना दस दिन में लिखी जानी थी, वह दो-तीन दिन में ही अपने पूर्ण उत्कर्ष के साथ प्रकट हो जाती है। यह प्रकाशन निश्चय ही बहुत चौंकाने वाला होता है।...मुझे मूड बनाने के लिए किसी सत्संग की, किसी चाय-पार्टी की या पान-सुपारी, लौंग -इलाइची की आवश्यकता नहीं होती।
आपके लेखन का मूल स्वर क्या रहा है?
आशावादी और व्यंग्यात्मक।
समालोचना के क्षेत्र में आपके आदर्श कौन रहे?
मैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की सहृदयता, सात्विकता, सादगी, स्वच्छंदता और गहन साहित्यिक और समालोचक अंतदृष्टि से विशेष रूप से प्रभावित हुआ। इसी प्रकार साहित्य-जगत के यशस्वी और मनस्वी चिंतक, शोधक और समालोचक डा. नगेन्द्र के व्यक्तित्व और कृतित्व से गहराई से प्रभावित हुआ। कई साक्षात्कारों में मेरा इन दोनों महानुभावों से संपर्क हुआ और मैं यह देखकर विशेष मुग्ध रहा कि ये दोनों ही महानुभाव अपनी विद्वता, सत्ता और महत्ता को सामने वाले प्रत्याशी पर कभी थोपते नहीं थे। उसे बोलने का, आत्माभिव्यक्ति का पूरा अवसर देते थे। इसी प्रकार डा. सत्येन्द्र की सादगी, सच्चाई  और न्यायप्रियता से विशेष अनुप्राणित रहा हूं। वैसे मेरी समालोचना-दृष्टि को सर्वाधिक प्रेरित और प्रभावित करने वाले रहे आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल।
हिन्दी आलोचना की वर्तमान स्थिति के बारे में आपकी क्या राय है?
पहले आलोचना (समालोचना) एक स्वतंत्र विधा थी। इसमें किसी साहित्यिक कृति के गुण-दोषों का युक्तिसंगत, तटस्थ, गंभीर विश्लेषण और मूल्यांकन किया जाता था। श्री गुलाबराय, शचीरानी गुर्टू, विशम्भर ‘मानव’, शांतिप्रिय द्विवेदी, शिवदानसिंह चौहान आदि जाने-माने समालोचक थे। आगे चलकर समालोचना का अस्तित्व शोध में समाने लगा। जो उत्कृष्ट कोटि के शोध-प्रबंध होते थे, उनमें उत्कृष्ट कोटि की समालोचना के भी दर्शन होने लगे। किन्तु समालोचना की स्वतंत्र  सत्ता भी बनी रही। कई शोधक साथ में समालोचक भी थे। डा. नगेन्द्र प्रसिद्ध शोधक थे। किन्तु उन्होंने ‘सुमित्रानंदन पंत’ और ‘साकेत : एक अध्ययन’ जैसे उत्तम समालोचना ग्रंथ भी लिखे। वर्तमान काल में पुस्तकों की संक्षिप्त समीक्षाएं तो लिखी जाती हैं, किन्तु समालोचनाएं प्राय: नहीं लिखीं जातीं। समीक्षाएं प्राय: स्तुतिपरक होती हैं। किन्तु कभी-कभी कुछ पत्रिकाओं में स्तरीय समीक्षाओं के दर्शन होते  हैं। अब समालोचना समीक्षा में सिमटकर रह गई हैं। शोध की स्थिति निराशाजनक है, तो उसमें निहित समालोचना-दृष्टि लुप्तप्राय: है।
युवा पीढ़ी के लेखकों को आप क्या टिप्स देना चाहेंगे?
मैं  जीवन और साहित्य को सतही और आरोपित अवधारणाओं के मायाजाल से मुक्त रखने के पक्ष में हूं। इसीलिए आधुनिकतावाद, अतिआधुनिकतावाद, उत्तर आधुनिकतावाद, नारी-विमर्श, दलित-विमर्श, साम्यवाद, पूंजीवाद आदि के मकड़जाल से मुक्त रहकर व्यक्ति, परिवार, समाज, प्रदेश, देश, और विश्व के उत्कर्ष और कल्याण को केन्द्र में रखकर देश और देश की संस्कृति का अभुत्थान करना ही नए और पुराने सभी साहित्यकारों का लक्ष्य और धर्म है। इसीलिए मैं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ही जीवन और साहित्य का लक्ष्य मानता हूं।
साहित्य-क्षेत्र में आपकी अधूरी चाह क्या है?
मेरे मन में बहुत दिनों से विचार था कि मैं गुरु गोविन्दसिंह, राणा प्रतापसिंह, छत्रपति शिवाजी, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, शहीद भगतसिंह, वीर सावरकर आदि में से किसी पर खंड काव्य अथवा माहाकाव्य की रचना करूं। लेकिन यह संभव नहीं हो पाया, चूंकि इसके लिए लंबे अखंड अवकाश की आवश्यकता है, जो अनेक व्यस्तताओं के कारण मुझे सुलभ नहीं हुआ।
हिन्दी में साहित्य लेखन से जीविकोपार्जन किया जा सकता है?
सामान्यत: नहीं। इसके लिए विरल प्रतिभा अपेक्षित है। श्री भगवती चरण वर्मा, श्री विष्णु प्रभाकर, श्री नागार्जुन, जैसे तपस्वी दुर्लभ हैं।
अंग्रेज़ी में साहित्य की पुस्तकें लाखों में छपती हैं, लेखक एक दिन में हीरो हो जाता है, हिन्दी में ऐसा क्यों नहीं है?
भारत में अभी अंग्रेज़ियत के संस्कार जीवित हैं। अत: दिखाने के लिए पुस्तकें खरीदने और मेज़ पर या आल्मारी में सजाकर रखने का क्रेज अभी जारी है। अंग्रेज़ी अखबार भी पढ़ने के लिए कम और सजाने-दिखाने के लिए अधिक खरीदे जाते हैं। रही पुस्तकों की गुणवत्ता की बात तो वर्तमानकाल में कोई अंग्रेज़ी की पुस्तक राष्ट्रभक्ति, संस्कृति,दर्शन, विश्व-प्रेम, आदि उदात्त आदर्श या संदेश के कारण स्थाई ख्याति अर्जित नहीं कर सकी। अधिकतर ऐसी पुस्तकें भारतीय यथार्थ के नाम पर अश्लीलता परोसती हैं। विदेशी पाठक भी भारत की ऐसी तस्वीर में रस लेकर प्रसन्न होते हैं। ये पुस्तकें प्राय:  नाम और दाम कमाने के उद्देश्य से ही लिखी जाती हैं। प्रकाशक भी इनकी चटपटी मसालेदार सामग्री को देखकर इन्हें बड़ी संख्या में छापते हैं। हिन्दी में मृदुला गर्ग क े उपन्यास अपनी इन्हीं तथाकथित विशेषताओं के कारण गर्म जलेबियों की भांति बिकते थे।
आपका जन्म कब, कहां और किसके यहां हुआ?
मेरा जन्म 5 जनवरी 1934 में जिला मेरठ, तहसील हापुड़ के गांव चांदनेर में हुआ। मेरे पिता ठाकुर जुगलकिशोर वर्मा व पिता श्रीमती मोहिनी देवी साधारण कृषक थे।
आपका पालन-पोषण किन परिस्थितियों में हुआ?
हमारे गांव में परिवार सहित किसानों  की माली हालत अच्छी नहीं थी, किन्तु सभी जाति के लोगों में पारस्परिक सद्भाव और सामंजस्य था। गांव की स्थिति साधारणतया इस बात से आंकी जा सकती है कि गांव में प्रारम्भिक या प्राथमिक पाठशाला भी नहीं थी। अत: मुझे मिडिल कक्षा तक दो मील दूर स्थित बहादुरगढ़ नामक गांव में जाना पड़ता था। तत्पश्चात गांव से छह किलोमीटर दूर स्थित पब्लिक इंटर कालेज, स्याना (बुलंदशहर) में बारहवीं तक शिक्षा प्राप्त की। गर्मी-सर्दी में नंगे पांव पैदल स्कूल तक जाना और वहां से वापस आना कष्टसाध्य तपस्या थी, जिसे हम गांव के सभी विद्यार्थी सहर्ष सम्पन्न करते थे।  आर्थिक तंगी के कारण हम सबकी साधारण वेशभूषा रहती थी और सभी बच्चोें के पांवों में जूतियां नहीं होती थीं। सर्दियों में केवल एक स्वेटर से गुजारा करना पड़ता था। पिताजी सर्विस करते थे, किन्तु दादाजी की मृत्यु के बाद उन्हें भी खेती में ही रमना पड़ा। मैं और मेरा छोटा भाई साथ-साथ एक ही कक्षा में पढ़ते थे और पुस्तकों के एक ही सैट से काम चलाते थे। स्कूल में हम लोग कपड़े के छन्ने में रोटियां और अचार या आलू की चटनी बांध कर ले जाते थे।
आपको मां का ममत्व कितनी मात्रा में मिला?
मेरी मां हालांकि नितान्त अनपढ़ थीं, किन्तु थीं वे बहुत ही प्रतिभाशाली। वे स्वेटर से लेकर दरी, कालीन, निवाड़ तक स्वयं अपने हाथ से बुनती थीं। हमारी मां बहुत ही ममतामयी थीं। यद्यपि आािर्थक तंगी थी, किन्तु खानपान, दूध-दही की कोई कमी नहीं थी।...माताजी खाना खिलाने और हमारा पालन-पोषण, संवर्धन करने में अपनी पूरी ममता उंडेल देती थीं। उनके साथ हमें ममता की मूर्ति दादाजी का भी विरल स्नेह और लाड़-चाव सुलभ रहता था। माताजी बीमारी की अवस्था में भी हमें स्कूल के लिए समय पर भोजन तैयार करके दे देती थीं। ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमें बिना खाने के स्कूल जाना पड़ा हो।...कई बार ऐसा भी हुआ कि स्कूल के लिए फीस की व्यवस्था नहीं होती थी। ऐसे में माताजी आपात स्थिति के लिए बचाए गए और विधिपूर्वक दीवार में गाड़े गए चांदी के रुपयों को खुरपी से खोदकर बाहर निकालतीं। इस प्रकार फीस और पढ़ाई के खर्चों का बंदोबस्त करने में वे किसी प्रकार की कोई कसर नहीं छोड़ती थीं। ...एक बार बचपन में मेरे चेचकग्रस्त होने पर मेरी आंखें बिलकुल बंद हो गई थीं, माताजी को शंका थी कि मेरी दोनों आंखें चली जाएंगी। वे मेरे सिरहाने बैठी हुई बीजना से हवा करती रहतीं और फ़कीर-बाबाओं से विभूति लेकर बदले में मनमानी दक्षिणा देकर आंखों की रक्षा के लिए दुआ मांगतीं।
आपने अपनी शैतानी पर मां की डांट भी तो खाई होगी?
हां, चौथी कक्षा तक मैं बहुत नटखट था। उसके बाद मुझमें एकदम बदलाव आ गया। छोटेपन में जब कोई नुकसान या बिगाड़ हो जाता या मेरी शरारत के कारण माताजी की कोई चीज़ टूट-फूट जाती तो माताजी मेरे पीछे कभी यूं ही और कभी डंडा लेकर दौड़तीं तो मैं तत्काल घर के आंगन में खड़े नीम पर चढ़ जाता।  इस तरह मैं माताजी के आक्रोश और उनके डंडे की परिधि से बाहर हो जाता। इसलिए प्रत्यक्ष पिटाई के अवसर बहुत ही कम आ पाए। कभी यदि उनकी पकड़ में आ भी जाता तो वे एकाध थप्पड़ ही मारती थीं।...मां बहुत भावुक भी थीं। मुझे एकाध थप्पड़ मारने के बाद वे बहुत देर तक पछतातीं और कई बार रोने लगतीं। उस समय मैं भी विगलित हो जाता और उनके चरण छूकर उनसे छमा याचना करता। उनका हृदय तत्काल भर आता जैसे वह मुझे माफ करने के लिए पहले ही तैयार बैठी हों।
आपके पिनता का स्वभाव कैसा था?
मेरे पिताजी बहुत ही गंभीर अथवा संजीदा प्रकार के व्यक्ति थे। उनके मुख-मंडल पर आंतरिक गांभीर्य की गरिमा छायी रहती थी। उनकी विद्वता, प्रतिभा, परिश्रम और सहज उद्वेलित होने वाले प्रेम के सामने किसी प्रकार की शरारत इत्यादि का कोई अवकाश ही नहीं था। वे केवल पिता ही नहीं, एक सहृदय, सुयोग्य अभिभावक, तथा मनस्वी, तपस्वी, और दृष्टि-संपन्न अध्यापक और पथ-प्रदर्शक भी थे। हम सब भाइयों को शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति, अनुशासन के संस्कारों की दीक्षा उन्हीं से प्राप्त हुई।
आपके पिता आप पर क्रोध भी तो करते होंगे?
कभी-कभी अज्ञानवश, नादानी अथवा अनजाने में मुझसे काई भूल-चूक हो जाती थी तो पिताजी सीधे-सीधे डांट-फटकार या पिटाई का प्रश्रय नहीं लेते थे। वे अपनी मर्यादा और गरिमा के अनुसार अपनी भाव-भंगिमाओं और भृकुटियों से ही अपने आक्रोश की बहुत ही कलात्मक ढंग से अभिव्यंजना करते थे। यह अभिव्यंजना किसी भी फटकार या मार से अधिक प्रहारक और प्रभावशाली होती थी। ऐसी स्थिति में हमें अपनी भूल-चूक पर गहराई से चिन्तन करने और पछतावे के साथ-साथ क्षमा-याचना करने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं था। इस प्रकार वे अपनी परिवार प्रबंधन की योग्यता के शिखर पर पहुंच जाते थे।
उनके स्नेह की कोई अविस्मरणीय घटना?
जब मैं चौथी कक्षा का छात्र था, तब अचानक चेचक निकल आने से मैं वाार्षिक परीक्षा देने में असमर्थ रहा। उन दिनों चौथी कक्षा प्राइमरी शिक्षा की अंतिम परीक्षा होती थी। यह परीक्षा सरकारी स्तर पर ली जाती थी। पिताजी मेरा पूरा वर्ष अकारथ जाने की शंका से बेहद बेचैन थे और मेरी विवशता पर अनेक आंसू बहाते थे। अंतत: उन्होंने प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक से सम्पर्क साधकर तत्कालीन डिप्टी इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स श्री मंसूर अली के दरबार में गुहार लगाई। भगवत्कृपा से गुहार सुन ली गई। फलत: श्री मंसूर अली ने हापुड़ स्थित अपने कार्यालय में केवल गणित और हिन्दी विषयों की परीक्षा मूल परीक्षा से लगभग एक महीने पश्चात ली। गणित में शत-प्रतिशत और हिन्दी में 92 प्रतिशत अंक प्राप्त करने पर मुझे प्रथम श्रेणी का प्रमाणपत्र प्रदान किया गया। यह प्रकरण पिताजी के स्नेह, साहस, संघर्ष के साथ ही प्रधानाचार्या की संवेदना और श्री मंसूरअली की उदारता और हमदर्दी का ज्वलंत उदाहरण है।
आपने कालेज शिक्षा कहां तक प्राप्त की?
यद्यपि घरेलू साधन-स्रोतों के हिसाब से हम दोनों भाइयों के लिए इंटरमीडिएट से आगे पढ़ने का कोई अवकाश नहीं था किन्तु पिताजी के साहस और प्रोत्साहन से हम लोगों के लिए उच्च शिक्षा भी सहज-संभव हो सकी। पिताजी ने हमको बी.ए. की शिक्षा ग्रहण करने के उद्देश्य से 1953 में मेरठ कालेज, मेरठ में प्रवेश दिला दिया। हम दोनों भाई खाने-पीने के अतिरिक्त और सब खर्चे मिलाकर पिताजी द्वारा भेजे गए केवल पचास रुपए मासिक में ही काम चलाते थे।  खर्चे की पूर्ति के लिए हम दोनों ही भाई ट्यूशन के माध्यम से कुछ राशि अर्जित करते थे। छोटा भाई हाईस्कूल की एक छात्रा को इंगलिश पढ़ाता था। यही क्रम एम.ए. में भी चलता रहा। एम.ए. में तो मैं एस.ए. की छात्रा को उसके घर हिन्दी भाषा और साहित्य पढ़ाने जाता था। इस प्रकार हम दोनों भाइयों का छात्रावास का व्यय भी आसानी से पूरा हो जाता था।  अंच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के कारण कालेज की फीस हम दोनों भाइयों की माफ रहती थी।
युवावस्था में आपने किसी से प्रेम की पींगें भी तो बढ़ाई होंगी?
बचपन से हम दोनों भाई बहुत ही अंतर्मुखी और संकोचशील थे। यह संकोच की स्थिति बाद तक भी बनी रही। हम अपने कुछ अंतरंग मित्रों से ही वार्तालाप कर पाते थे। अपने साथ की किसी छात्रा से बात करने का साहस हमारे अंदर था ही नहीं। अत: प्रेम-प्रसंग का तो प्रश्न ही नहीं उठता। जब एक दिन हिन्दी विभाग के अध्यक्ष गुरुवर कृष्णानंद पंत ने मेरे एक लेख पर मुग्ध होकर मुझे अपने घर आने को कहा तो मैं संकोचवश उनके आवास का पता ही उनसे नहीं पूछ पाया। बाद में अपने एक सहपाठी की सहायता से जब मैं जैसे-तैसे उनके घर पहुंचा तो उन्होंने मेरी कथा सुनकर चीफ वार्डन से मिलकर छात्रावास की मेरी फीस माफ़ करवा दी। यह छात्रावास के इतिहास में विरल उदाहरण है।
ऐसा कोई पेड़ नहीं जिसे हवा न लगी हो।...आपने एकतरफा प्रेम तो किया ही होगा?
विपरीत लिंगी के प्रति प्रेमाकर्षण मनुष्य की सहज दुर्बलता भी है और शक्ति भी। शक्ति इसलिए कि यह प्रेमभावना ही समय पाकर कर्तव्यनिष्ठा, देशभक्ति और ईशभक्ति में रूपान्तरित हो जाती है। इसलिए ऋग्वेद के नासकीय सूक्त में कहा गया है कि जब सर्वत्र कुछ भी नहीं था, तब भी अंतरिक्ष में एक तत्व सांस ले रहा था, जिसका नाम काम अथवा प्रेम है। यह काम भावना रूपान्तरणीय है। यदि हम इस काम को किसी व्यवसाय, लक्ष्य की पूर्ति, महान कार्य की दिशा में नियोजित कर दें तो यह काम ही धर्म और साधना का रूप ले लेता है। इसलिए हम दोनों भाइयों की कामशक्ति आर्थिक संकट से जूझने और पढ़ाई में प्रथम आने की धुन में खपती रही और हम निर्विघ्न अविरल प्रेम पथिक की भांति आत्मोथान की पगडंडी पर सतत अग्रसर होते चले गए। उस समय हम दोनों ने जिनती कविताएं लिखीं, वे सब निर्धनता, कृषक-जीवन, मजदूर, अमर शहीद, देशभक्ति पर ही केन्द्रित थीं।
इसका मतलब आपको प्रेमपत्र लिखने का अनुभव तो कतई नहीं होगा?
आपने बिलकुल सही समझा। हम दोनों भाइयों को पत्र लिखने का तो अभ्यास था, किन्तु प्रेमपत्र का विचार तो हमारे स्वप्न में भी नहीं आया।
अपने जीवन में आपने कभी प्रेमपत्र नहीं लिखे?
अपने जीवन में अनेक प्रकार की आशंकाओं, शंकाओं सीमाओं के साथ प्रेमपत्र लिखने का दुस्साहस कभी नहीं बटोर पाया, किन्तु आगे चलकर जब सर्जनात्मक गद्य लेखन में पदार्पण किया तो कई चिट्ठियों के रूप में हास्य-व्यंग्य लेखों की रचना की। मेरे एक हास्य-व्यंग्य संग्रह का शीर्षक ही है ‘चिट्ठी मिस स्वीटी की’।  इन चिट्ठियों में प्रेम के क्षेत्र की अनेक दमित वासनाओं, प्रेम लिप्साओं, लालसाओं का बहुत ही मार्मिक, अर्थगर्भित निरूपण हुआ है। इस प्रकार दबा हुआ प्रेम इन चिट्ठियों में रोचक रूप से उजागर हुआ है।
आपका विवाह कब, किससे हुआ और क्या वह पारंपरिक रूप से हुआ?
मेरे विवाह की भी एक विचित्र कहानी है। मेरी सगाई उस समय कर दी गई थी, जब मैं जानता ही नहीं था कि सगाई क्या बला है? उस समय मेरी आयु पांच वर्ष थी। जब मैं दसवीं कक्षा की परीक्षा देकर लौटा तो एक अनपढ़, मासूम कन्या सरलादेवी से 17 जून 1951 को मेरा विवाह कर दिया गया।  मेरा विवाह पूरे पारंपरिक ढंग से ही हुआ।
आपने अपनी पत्नी का मुखदर्शन पहली बार कब किया था?
विवाह के पश्चात् जब मैं बी.ए. अंतिम वर्ष का छात्र था, तब मेरा गौना हुआ। तब ही मेरे लिए अपनी पत्नी के प्रथम दर्शन का सुयोग्य घटित हुआ।
आपके जीवन का टर्निंग पाइंट क्या है?
मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक संयोग है क्रिश्चियन कालेज, बटाला (पंजाब) में सन् 1960 में संस्कृत और हिन्दी के प्राध्यापक के रूप में  मेरी नियुक्ति।...जब मैं साक्षात्कार के लिए गया था, तब मेरे अतिरिक्त सात महिलाएं भी साक्षात्कार के लिए आई हुई थीं। प््रााध्यापक-चयन समिति में पूरे कालेज के 120 प्राध्यापकों में से 85 प्राध्यापक उसके सदस्य थे। साक्षात्कार कालेज के सभागार में संपन्न हुआ था। मेरा साक्षात्कार 55 मिनट तक चला। मेरे उत्तरों को सुनकर प्राध्यापकगण अपनी प्रतिक्रिया पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे थे। वे सरासर कह रहे थे ‘ही इज ए ब्रिलिएंट चैप, आई स्पीक, सी विल बी सलेक्टेड।’ यही हुआ भी। मैं क्रिश्चियन कालेज के पदाधिकारियों की उस दिव्यता को प्रणाम करता हूं, जिसके वशीभूत होकर उन्होंने ईसाई प्रतियोगियों को छोड़कर प्रतिभा के आधार पर मेरा चयन करना अपनी संस्था के हित में समझा। जब मैं वहां अध्यापनरत था तो एक दिन मैं चौदह ज्योतिषियों के प्रमुख से मिला। उन्होंने मुझे बताया कि एक महीने में ही मेरी नियुक्ति किसी ऊंचे पद पर पूर्व दिशा में होगी। इसी दौरान कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में विशेषत: संस्कृत का प्रश्नपत्र पढ़ाने के लए एक प्राध्यापक की आवश्यकता विज्ञापित हुई। मैंंने अपना आवेदन पत्र भेज दिया और यथा समय मैं साक्षात्कार देने गया तथा सौभाग्यवश चुन लिया गया। अत: बटाला कालेज में क्रिश्चियन कालेज में नियुक्ति मेरे पुरुषार्थ और भाग्य के फलीभूत होने का एक महत्वपूर्ण संयोगस्थली है।

Saturday 7 April 2012

साक्षात्कार- लेखक को प्रकृति ने ही लिखने की जन्मजात सौगात दी है : उदयभानु हंस



15 सितंबर, 2008, दिन सोमवार, समय 2:10, दोपहर, लाजपतनगर, हिसार। राज्यकवि की उपाधि से विभूषित कवि उदयभानु हंस से साक्षात्कार लेने के लिए मैंने सोमवार का दिन निश्चित कर रखा था। मैंने उन्हें बताया था कि मैं 11:30 तक हिसार पहुंच जाऊंगा। हिसार में मुझे तीन साहित्यकारों के साक्षात्कार लेने थे, जिनमें एक हंसजी थे। एक दिन हिसार रुकने का मैंने कार्यक्रम बनाया था। सबसे पहला साक्षात्कार हंसजी का ही लेना था। मेरा अंदाजा था कि मैं सुबह सात बजे पानीपत से हिसार के लिए निकलूंगा तो ग्यारह बजे तक हर हालत में हिसार पहुंच जाऊंगा। लेकिन जब मैं पानीपत बस स्टैंड पर पहुंचा तो 8:10 हो रहे थे। वहां उस वक्त हिसार के लिए सीधी बस कोई नहीं थी। अत: मैंने रोहतक से हिसार जाना तय किया। तुरन्त ही रोहतक जाने वाली बस पकड़ी।  इस तरह मैं हिसार दोपहर एक बजे पहुंचा।

वहां पहुंचकर मैंने हंसजी से मोबाइल पर संपर्क साधा और पूछा कि मैं इस समय हिसार बस स्टैंड पर हूं। आपके घर तक आने के लिए मैं क्या साधन अपनाऊं? उन्होंने बताया कि बस स्टैंड के सामने ही कचहरी रोड के टैंपो में बैठो और कांग्रेस भवन से पहले वाले मोड़ पर उतरो। वह मोड़ लाजपतनगर का है। अत: मैं टैंपो के माध्यम से पन्द्रह मिनट के अंतराल पर हंसजी के निवास पर था। हंसजी से मेरी अनेक बार टेलीफोन पर बात हो चुकी थी, किन्तु रूबरू न मैंने उन्हें देखा था और न उन्होंने मुझे।...हंसजी के पास मुझसे पहले ही एक बैंक का एजेंट बैठा था। वे उससे एक रिकरिंग एकाउंट खुलवा रहे थे। आधा घंटे तक वे एकाउंट की औपचारिकताओं में उलझे रहे। उसके बाद मुझसे मुखातिब हुए। घर पर वे और उनका एक पौत्र गुंजन था। मालूम हुआ गुंजन की मां शहर के किसी लैब में टैक्नीशियन हैं। शाम को आएंगी। जलपान की औपचारिकता के बाद मैंने उनसे कहा कि आप मुझे अपनी प्रकाशित पुस्तकें दिखा दें। मैं उनका अवलोकन करना चाहता हूं। हंसजी ने सर्वप्रथम छह-छह सौ पृष्ठों की चार खंडों में छपी अपनी रचनावली मेरे सामने रखी। उसके बाद अन्य फुटकर पुस्तकें भी उन्होंने लाकर रख दीं।  मैं उनकी भूमिका और टिप्पणियां पढ़ने में मशगूल हो गया। लगभग पौन घंटे बाद मैंने साक्षात्कार शुरू किया।
प्रश्न--हंसजी, आपमें साहित्यिक रुचि कब और कैसे विकसित हुई?
उत्तर--मेरे पिता पंडित विश्वनाथ शर्मा स्वयं जनकवि थे।...वे कथा बांचते थे और अपने हिन्दी और मुल्तानी भाषा में लिखे परंपरागत भजनों को  बीच-बीच में कथा के दौरान सुनाते थे। वे संस्कृत में श्लोक रचा भी करते थे। मैं उनके इस विशेष गुण को कौतुहल  एवं आश्चर्य से देखा करता था। उनके प्रभाव से मुझमें भी तुकबदी करने की ललक जाग उठी। यह बात सन् 1940 के आसपास की है।...पिताजी मुझे भी कथा के आयोजनों में अपने साथ ले जाते थे और अक्सर अपने आसन के पास खड़ा करके मुझसे कुछ न कुछ बुलवाते थे। दरअसल उनकी मंशा थी कि मैं भी उनकी तरह ही धर्म-प्रचारक ही बनूं।...इस तरह मैं भी अपनी तुकबंदियां उनके कथा मंच से सुनाने लगा।...पिताजी के पुस्तक भंडार में मुझे उन दिनों राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त की काव्य-पुस्तक ‘भारत भारती’ पढ़ने को मिली। उसे पढ़कर मेरे अन्दर वैसे ही भक्तिपूर्ण गीत लिखने की भावना पैदा हुई। और मैंने ‘भारत भारती’ की शैली और हरीगीतिका छंद में ही कई देशभक्ति की कविताएं लिखीं। वह समय गांधीजी के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ (1942) का था।...उन्हीं दिनों मैं मुल्तान में सनातन धर्म कालेज में संस्कृत पढ़ने गया हुआ था। उस दौरान मैं संस्कृत, हिन्दी और उर्दू तीनों भाषाओं  में कविता लिखने का अभ्यास करने लगा था।
प्रश्न--आपने पहली रचना कब और कौन-सी लिखी?
उत्तर--मेरी पहली रचना कविता थी जो 1942 में गोस्वामी गणेशदत्तजी की चार पेज की प्रशस्ति के रूप में लिखी गई थी, जिसे मैंने हरीगीतिका छंद में आबद्ध किया था।
प्रश्न--आपकी पहली परिपक्व रचना कौन-सी है, जिसे लिखकर आपको प्रशंसा भी मिली और आत्मसंतोष भी हुआ?
उत्तर--मैंने 1945-46 में ‘चिंगारी’ नामक गीत लिखा था जो अंग्रेज़ों के खिलाफ आज़ादी का आह्वान है। यह गीत राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत है। मुझे यह गीत लिखकर और मंच पर सुनाकर बहुत संतोष मिला था। संस्कृत में भी परिपक्व रचना ‘पार्वती पंचकम्’ अयोध्या से प्रकाशित साप्ताहिक संस्कृतम् में छपी थी। जिस पर मुझे ‘कवि भूषणम्’ की मानद उपाधि का प्रमाण-पत्र (1943) मिला था। उर्दू में सर्वप्रथम मैंने कुछ मुक्तक हिन्दू-मुस्लिम एकता पर आधारित पहली बार (1946) में मुशायरे में सुनाए और सराहे गए।
प्रश्न--आप अपने को मूल रूप में क्या मानते हैं?
उत्तर--मैंने वैसे चार कहानियों के साथ अन्य प्रकार का गद्य भी लिखा है। मैं मानता हूं कि मैं कहानी लेखन में दक्ष नहीं हूं। मैं अपने को मूलत: कवि ही मानता हूं। कविता की विभिन्न विधाओं में ही मैंने अपने को सक्षमता के साथ अभिव्यक्त किया है।
प्रश्न--हिन्दी के किन साहित्यकारों का प्रभाव आप पर पड़ा? आपके प्रिय कवि कौन हैं?
उत्तर--आरम्भ में मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय भावना से प्रभावित हुआ। उसके बाद मुझे हरिवंशराय बच्चन के काव्य ने बहुत प्रभावित किया। बच्चनजी के मधुर गीत मुझे अत्यंत प्रिय हैं। उनकी सरल-सुबोध भाषा, मर्मस्पर्शी भाव, रोचक शैली और प्रभावोत्पादक प्रस्तुतीकरण मुझे बहुत ही प्रभावित करता रहा। वे मेरे आदर्श रहे। उनके अतिरिक्त जयशंकर प्रसाद, रामधारीसिंह दिनकर का काव्य और फिराक गोरखपुरी की शायरी भी मुझे भाती है। लेकिन सबसे अधिक प्रिय बच्चनजी ही रहे। यूं समकालीनों में नीरज और रामावतार त्यागी का मैं प्रशंसक हूं।
प्रश्न--जीवन यात्रा की वे कौन-सी प्रेरणादायक साहित्यिक पुस्तकें हैं जिन्हें आप आज भी नहीं भूले हैं?
उत्तर--जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ रामधारीसिंह दिनकर की ‘उर्वशी’, मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ और फिराक गोरखपुरी का रुबाई संग्रह मेरे जेहन में आज भी उपस्थित है और रहेगा।
प्रश्न--आपके काव्य की मूल संवेदना क्या है?
उत्तर--राष्ट्रीय भावना, मानव मूल्य और शृंगार रस की त्रिवेणी मेरी कविता के मूल स्वर हैं। सूत्र रूप में मेरे काव्य की मूल संवेदना ‘सत्यम् शिवम् सुदरम्’ में समाहित है। यद्यपि मैंने युगबोध के बहाने विविध भावनाओं के सतरंगे इन्द्रधनुष की छवियां चित्रित की हैं। तथापि प्रधानतया वीररस तथा शृंगार रस ही मेरे काव्य के दो किनारे हैं, जिनमें मानव जीवन की धारा सम-विसम रूप में बहती हुई आध्यात्मिकता के अनंत सागर में समा जाती है।
प्रश्न--साहित्यिक क्षेत्र में आपको प्रोत्साहित और प्रेरित किसने किया?
उत्तर--सर्वप्रथम पिताजी को ही मैं अपना प्रेरणास्रोत मानता हूं।...पिता के एक शिष्य थे रामकृष्ण भारती।  वे किशोरावस्था में पिताजी से संस्कृत पढ़ते थे। लाहौर में जाकर वे अच्छे गीतकार हो गए थे। उन्होंने ‘निर्झर’ नाम का अपना गीत संग्रह (1940) पिताजी को गुरु होने  के नाते भेंट किया। मैंने वह गीत संकलन पढ़ा। पहली बार गीत लिखने की प्रेरणा मुझे भारतीजी के संकलन से मिली।...संस्कृत लेखन में पंडित दीनानाथ शास्त्री सारस्वत ने मुझे लिखने और संस्कृत की पत्रिकाओं में प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया। पहले मैं साधारण छंदों में कविता लिखता था। शास्त्रीजी ने मुझे अन्य छंदों में कविता लिखने को प्रोत्साहित किया। उर्दू में अल्लाबख्श कस्फ़ी (बुलबुल-ए-मुल्तान) एक प्रसिद्ध शायर और मेरे स्कूल के ड्राइंग मास्टर फक़ीर नूर मुहम्मद नूर। मेरे गांव के इन दोनों शायरों ने मेरा मार्गदर्शन किया।
प्रश्न--आप मार्क्सवााद से कभी रूबरू हुए?
उत्तर--मैं किसी वाद-विवाद को पसंद नहीं करता। मैं हिन्दी के साहित्य जगत में प्रचलित तथाकथित वादों से मुक्त रहा हूं। उन वादों मेंं मेरी कभी रुचि नहीं रही। मैं सिर्फ साहित्य के प्रति प्रतिबद्ध हूं। आप इसे मेरी मानव-कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता मान सकते हैं। मेरा विश्वास है, सच्चा कवि या लेखक जनवादी (वामपंथी) हो न हो वह जनकवि अवश्य होता है।
प्रश्न--आप साहित्य लेखन में अपनी कौन-सी इच्छा चाहते हुए भी पूरी नहीं कर सके?
उत्तर--मैंने सन् 1966 में महात्मा गांधी पर ‘वामन विराट’  नाम से महाकाव्य लिखने की योजना बनाई थी। इसके लिए आवश्यक जानकारी भी जुटा ली  थी। परन्तु गुरु गोविन्द्रसिंह की संक्षिप्त आत्मकथा ‘विचित्र नाटक’ पढ़ने का संयोग ज्यों ही मुझे मिला, मेरे मन-मस्तिष्क में सहसा एक अद्भुत भावाद्रेक उठा, भीतर से आवाज़ आई और मैं ‘संत सिपाही’ महाकाव्य लिखने को विवश हो गया। गांधीजी का चमत्कारी चरित्र विशेष रूप से दक्षिण अफ्रीका में उनका संघर्ष और चिन्तन आज भी मुझे प्रेरित करता है। परन्तु अब जीवन की संध्या में महाकाव्य लिखने के लिए अपेक्षित सुदीर्घकाल तक भावलोक में लीन रहना संभव नहीं। इसी प्रकार अहल्या, द्रौपदी, सीता-निष्कासन पर राजाराम की व्यथा भी मुझे उकसाती, विचलित करती रहती है।
प्रश्न--आपको लिखने के लिए कैसे वातावरण की आवश्यकता होती है?
उत्तर--जब मैं लिखने के लिए अपने अंदर दबाव महसूस करता हूं, अर्थात जब मन आतुर हो उठता है तो मैं शोरगुल में, बस या रेलयात्रा में सफर करते हुए, क्लास रूम में पढ़ते हुए भी लिख लेता हूं। एकान्त का होना मेरे लिए अनिवार्य नहीं है।
प्रश्न--आप क्यों लिखते हैं?
उत्तर--दरअसल लेखक को प्रकृति ने ही लिखने की जन्मजात सौगात दी है। हर लेखक-कवि जानता है कि भावों को शब्दों में ढालना उसकी मजबूरी है, चूंकि उसी में उसको आनंद मिलता है। बिना रचनाकर्म किए वह रह ही नहीं सकता।...तो भाई सारथी, यूं समझो कि लिखना मेरे लिए अपने को व्यक्त करने और समाज को अपने विचार बांटने का एक प्रिय माध्यम है। मैं तो यही कहूंगा कि मेरे अन्दर के भाव स्वत: ही शब्द बनकर निकलते हैं और कागज़ पर उतरते हैं। वास्तव में, मैं अपनी भावना को, पीड़ा को शब्दों में व्यक्त कर अपने मन का बोझ हल्का करना चाहता हूं। इसी से संबंधित कविता की दो पंक्तियां हैं--
जन्म लेती नहीं आकाश से कविता मेरी,
फूट पड़ती है स्वयं धरती से कोंपल की तरह।
प्रश्न--आपकी रचना-प्रक्रिया क्या है?
उत्तर--मेरी रचना-प्रक्रिया कोई विशेष नहीं है।...कोई घटना या अनुभव जब मेरे मन-मस्तिष्क में उद्वेलन करने लगता है तो वह वैचारिकी के साथ द्वंद्व करते हुए आकार ग्रहण करने के लिए छटपटाता है और आकार निश्चित होते ही शब्दों के माध्यम से रचना का विस्फोटन हो जाता है। यह एक स्वत:  प्रक्रिया है।
प्रश्न--आप बैठकर, लेटकर, कुर्सी-मेज पर, टेक लगाकर, गाव-तकिया लगाकर आदि में से कैसे लिखते हैं?
उत्तर--मैं तख्तपोश पर बैठकर लिखता हूं, जिसमें तकिया पीछे लगा होता है। वैसे मैं मेज-कुर्सी पर बैठकर भी लिख लेता हूं।...अन्य किसी प्रकार से नहीं लिखा। हां बाद में लिखने के लिए नोट्स ज़रूर तैयार कर लेता हूं।
प्रश्न--आपको लिखने के लिए कैसे माहौल की ज़रूरत होती है?
उत्तर--जब लिखने का दबाव बन जाता है तो मैं हर परिस्थिति में लिख लेता हूं।...मैंने बस व रेल में सफ़र करते हुए भी लिखा है। मुझे इसके लिए एकान्त जैसी बाध्यता की ज़रूरत नहीं होती।
प्रश्न--कभी मूड उखड़ जाए तो मूड बनाने के लिए आप क्या उपाय करते हैं?
उत्तर--मेरे साथ कभी ऐसा नहीं होता।
प्रश्न--साहित्य लेखन के जरिए क्या जीविकोपार्जन किया जा सकता है?
उत्तर--हिन्दी में तो संभव नहीं है। इसका मुख्य कारण है कि आज देश के  हिन्दी क्षेत्र का आदमी पुस्तक के महत्व को जानता ही नहीं। जबकि हिन्दी के विपरीत बंगला भाषी लोग पुस्तक के महत्व को जानते हैं। वहां तो पुस्तकें एक-दूसरे को उपहार में देने की संस्कृति विकसित है। मराठी, गुजराती या दक्षिण भारत की भाषाओं के बारे में तो मैं नहीं जानता, परन्तु  हिन्दी भाषी प्रदेशों की सामान्य धारणा और स्थिति ऐसी ही है। अत: हिन्दी लेखन जीविकोपार्जन का साधन मेरे विचार से नहीं बन सकता।
प्रश्न--अंग्रेज़ी में पुस्तकें लाखों में छपती और बिकती हैं। अंग्रेज़ी लेखक रातों-रात हीरो बन जाता है। हिन्दी में ऐसा क्यों नहीं है?
उत्तर--यह प्रश्न पहले वाले से ही जुड़ा है। अंग्रेज़ी अंतरराष्ट्रीय भाषा है। उसका बाज़ार विस्तÞत है।  अंग्रेज़ी की पुस्तक को या अनुवाद को अन्य भाषा-भाषी भी खरीदते हैं। दूसरे इसके लिए प्रकाशक भी दोषी हैं। वे हिन्दी की पुस्तक का इतना अधिक मूल्य रखते हैं कि आम आदमी की पहुंच से वह बाहर होता है।...जब तक हम हिन्दी में पुस्तक संस्कृति विकसित नहीं करेंगे तब तक स्थिति ऐसी ही बनी रहेगी।
प्रश्न--आपका जन्म कब और कहां और किसके यहां हुआ?
उत्तर--मेरा जन्म 2 अगस्त 1926 को मुल्तान मियांवाली रेलवे लाइन पर दायरा दीनपनाह नाम के एक कस्बे में पिता पंडित विश्वनाथ शर्मा के यहां माता श्रीमती गणेशदेवी की कोख से हुआ। मैं उनका इकलौता लड़का हूं। मेरी दो बहनों में अब (छोटी) एक जीवित है।
प्रश्न--आपकी शिक्षा-दीक्षा कितनी और कहां-कहां हुई?
उत्तर--दायरा दीनपनाह कस्बे के मिडिल स्कूल से मैंने उर्दू और फारसी में शिक्षा पाई। मुझे हिन्दी और संस्कृत घर पर पिताजी पढ़ाते थे। उनकी इच्छा थी कि मैं उनकी तरह ही कर्मकांडी पंडित और धर्मोपदेशक बनूं। इसीलिए उन्होंने मुझे दरियाखान ज़िला मियांवाली में (1940) में हरमिंदर संस्कृत विद्यालय में पढ़ने भेज दिया, जिसे स्वामी अमरदेव चला रहे थे।  शुरू-शुरू में मुझे अपने हाथ से कपड़े धोना और ज़मीन में सोना अच्छा नहीं लगा। बड़ी मुश्किल से मैंने वहां दो साल गुजारे। बाद में पिताजी ने मुझे मुल्तान के संस्कृत कालेज में पढ़ने भेज दिया। वहां शास्त्री की परीक्षा मैंने 1945 में उत्तीर्ण की। पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर में सर्वप्रथम रह कर पास की तथा तुरंत उसी कालेज में शिक्षक हो गया। मैंट्रिक परीक्षा मैंने 1946 में दी। और देश विभाजन के बाद एफए परीक्षा दोबारा और बीए डिग्री (1950) लेकर एमए हिन्दी (1962) में दिल्ली यूनिवर्सिटी से उत्तीर्ण की।
प्रश्न--आपका पालन-पोषण कैसी परिस्थितियों में हुआ?
उत्तर--मेरा पालन-पोषण निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की परिस्थितियों के बीच हुआ है। घर में कभी किसी चीज़ का तो कभी किसी चीज़ का अभाव  रहता था।...हालंकि खाने-पीने की कमी नहीं थी, लेकिन कोई अतिरिक्त खर्च आ जाने पर समस्या खड़ी हो जाती थी।...मेरी मां ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर चक्की पीसती थीं। जिजमानों के यहां हंदा (श्रद्धा-सीधा)  मांगने जाती थीं। पिताजी पंडिताई करते थे। तायाजी वैद्य थे, मां तायाजी की दवाइयां कूटती थीं। वह धर्मप्राण, मूक तपस्विनी देवी थीं।
प्रश्न--आपको अपनी माता की ममता और स्नेह कितना प्राप्त हुआ?
उत्तर--मेरी मां सीधी-सादी घरेलू महिला थीं। वे अनपढ़ थीं किन्तु स्वभाव में एकदम गऊ थीं।...देवीस्वरूपा। बहुत ही शांत स्वभाव था उनका। वे मुझे बहुत प्यार करती थीं।
प्रश्न--आपके पिता का स्वभाव कैसा था?
उत्तर--मेरे पिता बहुत ही अनुशासनप्रिय थे। वे निर्भीक और स्पष्ट वक्ता थे। उनका घर में दबदबा था। अनुशासनहीनता उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं थी। वे कठोर अनुशासन का पालन कराते थे।
प्रश्न--अपने पिता के स्नेह का कोई वाकया आपको याद है?
उत्तर--हां। 1966 में मुझे राज्यकवि का सम्मान मिला तो प्रदेश के हर बड़े शहर में अभिनंदन समारोह आयोजित हुए।...उन दिनों हम करनाल में रहते थे। करनाल में अभिनंदन समारोह आयोजित हुआ। समारोह से फारिग होकर मैं घर पहुंचा तो पिताजी घर के बाहर बैठे मिले। मैंने उनके पांव छुए। पिताजी ने मुझे आशीर्वाद देते हुए मुझसे दो मिनट बाहर ही खड़ा रहने को कहा। खुद वे अन्दर गए और बाज़ार से खरीदकर लाई हुई गोटे-फिरन की चमकीली माला लाए और मुझे पहनाकर अपने गले लगा लिया। उस क्षण को मैं आज तक नहीं भूला। एक पुत्र के लिए इससे बड़ा स्नेह पुरस्कार और क्या हो सकता है।
प्रश्न--आपने अपने पिता का गुस्सा भी तो झेला होगा?
उत्तर--मेरे पिता ने डांट और गुस्से का प्रदर्शन मेरे ऊपर कभी नहीं किया। पहली बात तो यह कि मैं उनका अकेला लड़का था। दूसरी बात उन्होंने मुझे योजनाबद्ध तरीके से पाला-पोषा और पढ़ाया। तीसरी बात यह कि मैं चौदह वर्ष की अवस्था से ही घर से बाहर पढ़ने चला गया था।
प्रश्न--आपके जीवन का टर्निंग पाइंट क्या है?
उत्तर--दिल्ली छोड़कर हिसार आकर राजकीय कालेज हिसार में प्राध्यापक के रूप में नौकरी ज्वाइन करना मेरे लिए एक टर्निंग पाइंट था।...दरअसल एमए पास करते ही मैं उन दिनों रामजस कालेज दिल्ली में बना रहता तो चार-छह महीने बाद नए शिक्षा सत्र में स्थाई होने की संभावना थी। और शीघ्र अधिक प्रसिद्धि और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता था।...यूं आज भी मेरी उपलब्धियां कम नहीं हैं। किन्तु देश की राजधानी में रहना मेरे लिए अधिक लाभदायक सिद्ध होता।
प्रश्न--प्यार करना नैसर्गिक क्रिया है। आपने युवावस्था में प्रेम भी तो किया होगा?
उत्तर--प्यार प्रसंग की घटनाएं मेरे साथ दो बार हुर्इं। एक बार किशोरावस्था में और दूसरी बार युवावस्था में मैं इस अनुभूति से सराबोर हुआ हूं। पहला प्रसंग देश के विभाजन से पूर्व पाकिस्तान का है।...एक दिन पड़ोस में रहने वाली एक किशोरी अपनी बड़ी बहन के साथ इस मकसद से आई कि उसे प्रभाकर की फिर तैयारी करा दूं, क्योंकि वह एक बार फेल हो चुकी थी। उस समय मैं पिताजी की बैठक में कोई पुस्तक पढ़ रहा था। वह एकदम से भीतर कमरे में आई और खिड़की से सिर झुकाकर उसने बड़ी-बड़ी आंखों से भीतर झांका। ऐसा करते समय उसके लम्बे घुंघराले केश नीचे लटक रहे थे। उसकी और मेरी नज़रें मिलीं। उसकी वह उदास दिलकश नज़र मेरे अंतरमन में गहरे तक उतर गई। उसके घुंघराले काले केशों में उसका चेहरा मुझे ऐसा लगा जैसे काली घटाओं में छिपा चांद। मुझे वह स्वर्ग से उतरीअप्सरा-सी मालूम हुई। उसका यह रूप मेंरे अन्तर तक उतर गया। उसे भी मेरे अंतरमन की यह प्रेमानुभूति प्रकट हो गई थी। उसे पढाने का प्रस्ताव मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर तो हम पढ़ाई के बहाने प्रतिदिन एक-दूसरे को जी भरकर देखते-बात करते, हंसते-खिलखिलाते, एक-दूसरे की तारीफ करते। वह पढ़ने में बहुत होशियार थी। हम पढ़ते कम, प्यार-मनुहार की बातें ज्Þयादा करते थे। बिछुड़ना हम दोनों  के लिए असह्य हो गया। वह घर जाकर अपने दुमंज़िले मकान की छत पर पहुंच जाती और इधर में भी। फिर हम दोनों आंखों ही आंखों में दिन में कई बार बातें करते-रहते। जल्दी ही उन दिनों दशहरे का पर्व आ गया। रामलीला हमारे घर के बिलकुल सामने बाज़ार की खुली जगह पर होती थी। हम दोनों रामलीला देखने के बहाने घर के ऊपरी बड़े कमरे की एक खिड़की में बैठ जाते। रात को एक बजे रामलीला समाप्त होती और मैं उसे घर तक छोड़ने जाता। द्वार बंद करने से पहले हम एक-दूसरे को भारी मन से विदा करते। हम एक-दूसरे को चाहते हैं यह बात शायद उसके घर वालों भी मालूम हो गई थी। उसके परिवार वालों ने उसकी मेरे साथ शादी की बात भी चलाई। मेरी मां और बहन को भी वह बहुत पसंद थी। लेकिन मेरे पिता ने उस रिश्ते के लिए साफ इंकार कर दिया। चूंकि पिताजी मेरे रिश्ते के विषय में ज़िला मुजफ्फरगढ़ के पंडित राधूलाल (कृष्णा के पिता) से संभवत: बात कर चुके थे। अन्तत: मेरी सगाई कर दी गई। उधर उसकी भी शादी एक विधुर अध्यापक के साथ हो गई।  हम दोनों प्रेमी असहाय रह गए। संयोग देखिए कि मेरी प्रेमिका का पति मेरा ही मित्र था। मेरे उस शास्त्री मित्र ने मुझसे ही मेरी प्रेमिका के बारे में पूछा कि वह कैसी लड़की है। मैं अपनी प्रेमिका की तारीफ करने के अलावा और क्या कहता उससे। मेरा दिन का चैन और रात की  नींद हराम हो गई। मेरे हृदय की तड़प, टीस, कसक और विरह वेदना सहसा हिन्दी-उर्दू के विरह गीतों के माध्यम से फूट पड़ी। किन्तु इतने में ही मेरी विकल मन:स्थिति शान्त एवं नियंन्त्रित नहीं हुई। एक उन्मादी प्रेमी एक बेसुध व्यथित वियोगी बनकर मैं आकुल-व्याकुल रहने लगा। उधर उसने भी अपने घायल, भग्न और निराश मन के घोर अंधकार में मेरी याद के दीपक को सतत जलाए रखा और जीवन भर कभी बुझने नहीं दिया। उसे सदैव मुझसे शिकायत रही कि मैं तो क्रमश: प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के शिखर पर चढ़कर सुखपूर्वक बैठ गया, जबकि उस अभागिन की जीवन-नैया को बीच भंवर में छोड़ दिया। वास्तविकता यह है कि देश-विभाजन के बाद भी मैं उसे भूल न सका और किसी न किसी बहाने उससे संपर्क बनाए रखा। उसका ग़म गलत करने में मेरा कृष्णा से विवाह काफी हद तक सहायक सिद्ध हुआ। पत्नी  के देह सुख ने काम-वासना का जो अद्भुत और अभूतपूर्व अनुभव मुझे दिया, वह न केवल मेरी तनावमुक्ति का सदा के लिए एक सुगम, सुलभ और अचूक उपाय बन गया, अपितु भविष्य में मेरे चारित्रिक पतन की हर सम्भावना में उसने रक्षा कवच का काम किया। अपने इस प्रेम का इजहार मैंने उन दिनों उर्दू में लिखी रुबाइयों में व्यक्त किया है जो ‘दर्द की बांसुरी’ नाम से हिन्दी में भी छपी है। प्रेम का दूसरा प्रसंग दिल्ली का है। यह लड़की मुझसे शास्त्री पढ़ती थी। बहुत ही शालीन और खुद्दार लड़की थी। बाद में उसने मेरे साथ काम भी किया। हम दोनों का प्रेम बहुत ही प्रगाढ़ था। वह पूरी तरह समर्पित थी मुझ पर।...मैं तब यकायक दिल्ली से हिसार आ गया था प्राध्यापक बनकर। उससे सम्पर्क निरन्तर हिसार आने के बाद भी बना रहा। लेकिन शादी का संयोग नहीं बना। इधर मेरी शादी हुई और उधर उसकी भी शादी हो गई। शादी के बाद से आज तक हम दोनों आज भी अच्छे दोस्त हैं।...वह एक सम्भ्रान्त, सुसंस्कृत, सुशिक्षित नवयुवती थी। उससे विवाह का तो कभी प्रश्न ही नहीं उठा। अत: जीवनभर हम नदी के किनारे बने रहे। एक-दूसरे से दूर भी पास भी। वह प्रेम सरोवर बड़ा  ही  विलक्षण था, उसमें स्नान कर मेरे तन-मन-प्राण सब भीग गए। मैंने उस दिव्य प्रेम माधुरी का रसामृत जीभर पीया और फिर भी प्यासा रहा। आज भी प्यासा हूं।  अपने उस समय की प्रेमानुभूतियों को मैंने अनेक गीतों में व्यक्त किया है। वह कविता संग्रह ‘प्रीत लड़ा बैठा’ नाम से छपा है।
प्रश्न--आपको प्रेम-पत्र लिखने का भी तो अनुभव होगा?
उत्तर--मैंने प्रेम-पत्र कभी नहीं लिखे। लेकिन पाए बहुत। मेरी पहली प्रेमिका बहुत ही अच्छे प्रेम-पत्र लिखती थी। मेरे ज़वाब न देने का कारण यह रहा कि वह मुझे प्रेम-पत्रों का जवाब  लिखने से मना करती थी। चूंकि वे पत्र उसके घर पहुंचेंगे और बात खुल जाएगी। मैंने अपनी दूसरी प्रेमिका को भी प्रेम-पत्र नहीं लिखे। हालांकि उसने मुझे बहुत ही कम पत्र लिखे। चूंकि रोज ही हम मिलते थे।...मैंने अपनी पत्नी को भी कभी प्रेम-पत्र नहीं लिखा चूंकि पत्नी वियोग मुझे कभी हुआ ही नहीं।
प्रश्न--शादी के बाद भी प्रेमिका से सपंर्क रखना पाप/अनैतिकता नहीं?
उत्तर--मेरी दृष्टि में सच्चा हार्दिक प्रेम पाप नहीं है। प्रेम तो सात्विक सनातन सत्य है। मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। ईश्वरीय वरदान है। उसे तथाकथित सामाजिक मर्यादा तथा थोथे एवं परिवर्तनशील नैतिक मूल्यों का मिथ्या आधार लेकर अभिशाप सिद्ध करने का प्रयास सर्वथा अनुचित है। मेरा प्रथम प्रेम नितान्त मानसिक, आत्मिक तल पर विशुद्ध सात्विक, स्वच्छ, अशरीरी और वायवी प्रकार का रहा, हल्का-फुल्का, सरल, सहज, सौम्य उदात्त। दो अबोध किशोर हृदयों का पवित्र गंगा-यमुनी संगम। दूसरा प्रेम युवावस्था का परिपक्व, प्रगाढ़, प्रबुद्ध, प्राकृतिक एवं पूर्ण था। उसमें गुलाब के फूलों का सौन्दर्य एवं सुगन्ध थी। नंदन वन के पारिजात का पराग था। उसमें सतरंगे इन्द्रधनुष के रंग थे, तितली के पंखों की फुलवारी थी, वसन्त ऋतु की मादकता और पहाड़ी झरने का मधुर संगीत था, कविता का रस भरा था।
प्रश्न--आपका विवाह कब और किससे हुआ?
उत्तर--मेरा विवाह कृष्णा देवी के साथ 30 जनवरी 1948 को हुआ।...वह विभाजन का दौर था। रिफ्यूजी लोग अपनी उन बेटियों को जिनके संबंध तय हो चुके थे, उनके बारे में अपने संबंधियों से आग्रह करते थे कि वे अपनी अमानत ले जाएं। बड़ी सादगी के साथ उन दिनों बेटियों की बिदाई होती थी। मेरे विवाह में भी तीन रिक्शों में परिवार की महिलाएं और एक तांगे में मैं और अन्य लोग सौ कदम पर ही स्थित विवाह मंडप तक बैठकर गए थे। और चंद घंटों के बाद ही दुल्हन को बिदा कराकर लेकर आए थे। विवाह का कर्मकाण्ड पिताजी ने कराया था। वर के मंत्र मैंने पढ़े थे। उस समय न कोई बैंडबाजा बजा न घुड़चढ़ी हुई।
प्रश्न--कहते हैं प्रत्येक पुरुष के साहित्यिक व्यक्तित्व के निर्माण के पीछे नारी का महत्वपूर्ण भूमिका होती है? आपके व्यक्तित्व के निर्माण के पीछे कौन नारी है?
उत्तर--निश्चय ही इस बात में सच्चाई जान पड़ती है। मेरे काव्य की मूल प्रेरणा नारी ही रही है। मेरी हिन्दी-उर्दू की अनेक रचनाएं इसकी साक्षी हैं। शुरू में प्रेम गीत और रुबाइयों के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से प्रेमिकाओं की ही प्रेरणा रही।...दूसरी ओर, मेरी पत्नी यदि घर-गृहस्थी के कामकाज से मुझे मुक्त न रखती तो कदाचित मैं अपना पर्याप्त समय साहित्य-साधना को न दे सकता था।
प्रश्न--आपके कितनी संतानें हैं?
उत्तर--चार। एक लड़का और तीन लड़कियां। सबकी शादी हो चुकी है। एक लड़की इस समय इंगलैंड में है और दूसरी कनाडा में। तीसरी बीच वाली लड़की यहीं यमुनानगर में ब्याही है। मैं अब दादा और नाना ही नहीं परनाना बन चुका हूं।
प्रश्न--आपका लड़का क्या करता है?
उत्तर--मेरे जीवन की सबसे बड़ी असफलता यही है कि मैं अपने इकलौते लड़के की अपनी इच्छा और आशा के अनुरूप उसके जीवन का निर्माण नहीं कर सका। वैसे वह बहुत ही जहीन और समझदार लड़का है। कार्यक्रमों का संचालन बड़ी खूबी के साथ करता है। लेकिन उससे वह अपने परिवार का पालन-पोषण तो नहीं कर सकता।
प्रश्न--जीवन की कोई अविस्मरणीय घटना बताएं?
उत्तर--एक बार इंगलैंड-अमेरिका की यात्रा में जब मैं मान्चेस्टर के कवि सम्मेलन में मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी और नीरज जैसे कवियों के होते हुए श्रोताओं में एक मुसलमान पाकिस्तानी शायर ने मेरी कविता से प्रसन्न होकर मुझे 100 पाउंड का उपहार दिया तो मैं विस्मय-विमुग्ध हो गया था। यह घटना मुझे कभी नहीं भूलती।
प्रश्न--आप युवा लेखकों-कवियों को क्या टिप्स देना चाहेंगे?
उत्तर--मैं लेखकों-कवियों को चार श्रेणियों में बांटता हूं। उदीयमान, नवोदित, स्थापित, स्थापित, प्रतिष्ठित।  उदीयमान तथा नवोदितों लेखक साहित्य सृजन को कठिन साधना समझें। श्रेष्ठ साहित्य की रचनाओं को पढ़ने और जिज्ञासु बनकर वरिष्ठ कवियों-लेखकों से कुछ सीखने समझने की आदत डालें। भाव और भाषा को बार-बार तराशते रहें। एक बार लिखकर ही संतुष्ट न हो जाएं। क्योंकि--
सुगन्ध जिसमें न हो, वह सुमन नहीं होता,
सुरा का घूंट कभी आचमन नहीं होता।
प्रसव की पीढ़ा जरूरी है एक मां के लिए,
बिना तपस्या के लेखन ‘सृजन’ नहीं होता।
शीघ्र प्रकाशन और सस्ते प्रचार का मोह छोड़ दें। पुरस्कार पाने के लिए साहित्य-रचना आत्म-प्रवंचना होगी। पुरस्कार वितरित नहीं, अर्जित किए जाते हैं। उनके लिए सिफारिश, जोड़-तोड़ का प्रयत्न करना अनैतिक है। रचनाधर्मी साहित्कार गुटबंदी, दूसरों के दोष-दर्शन की प्रवृत्ति, निन्दा, विरोध तथा पुरस्कारों के चक्कर में हिस्सा न लेकर अपनी गरिमा को बनाए रखें। आपमें प्रतिभा है तो एक दिन वह प्रकट होगी ही।

Saturday 31 March 2012

सेलुलर जेल


सेलुलर जेल !
तुम इसलिए राष्ट्रीय स्मारक हो
कि नई पीढ़ी जान सके
तुम्हारी साढ़े चार मीटर लंबी और तीन मीटर चौड़ी
दड़बेनुमा 698 कोठरियों की दीवारों में
आज़ादी के अनेक दीवानों ने
किस तरह बिताई यातनामय ज़िन्दगी
अंडमान निकोबार की धरती का जल ‘काला पानी’ क्यों कहलाया?
उन्हें मिल सके इस सवाल का जवाब।

सेलुलर जेल!
तुम्हें इसलिए सुरक्षित रखा गया है
कि बीते कल के इतिहास से सनी तुम्हारी दीवारों में
प्रांगण और कोठरियों के धरातल पर
गुलामी के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजाने वालों के जज़्बे
और घुटन की गंध को सूंघा जा सके
दफ़्न हो गए स्वतंत्रता सेनानियों के
हवा में खो गए सपनों को महसूस किया जा सके।

सेलुलर जेल!
तुम हमारे लिए इसलिए राष्ट्रीय धरोहर हो
कि तुम्हारे भवन की योजना को देख-पढ़ कर
हम अंग्रेज़ों की कुत्सित मानसिकता
उनके घिनौने शासन-तंत्र
और देश के गद्दारों की फेहरिस्त को पढ़ सकें।

Friday 30 March 2012

ज़िन्दगी और उसके फ़लसफ़े


कल अचानक आंधियों के गांव में जाना हुआ
दीप हर घर में जला देखा तो मैं हैरां हुआ
नहीं था आंधियों के घर हवा का वेग
रसरंगमय वातावरण सुरभित
निर्द्वंद्व थी हर दीप की बाती
उल्लास था--
गांव के हर द्वार आंगन में
अठखेलियों में मगन था बचपन
हर चेहरे पर दमकता था दरपन
लाड़-प्यार और विनोद-चुहल की चहक थी
यौवन की गुनगुन और रुनझुन की महक थी
हतप्रभ खड़ा मैं सोचने लगा--
क्यों नहीं दिखता यहां जीवन का संघर्ष
खीज, बौखलाहट और समय से दुर्घर्ष
पसीने की चिपचिपाहट
देह की थकन
भूख की बिलबिलाहट
पेट की जलन
पैरों की बिंवाई, हाथों की ठेक
देह की खुरसट में लहू की रेख
होंठों की पपड़ी पर तड़पती प्यास
डूबती आंखों में जीवन की आस
लू की जलन में छाया का सुख
टप-टप छत और अभावों का दुख
भूख से व्याकुल ममता का त्याग
चीख और चिल्लाहट, आंसुओं का राग।

तभी एक महात्मा ने
कंधे पर हाथ रखकर पूछा :
वत्स, क्या देखते हो?
क्यों हो दुखी और क्या सोचते हो?
मैंने कहा, महात्मन!
आहत हूं, समाज के वर्ग भेद से
छुआछूत, जातपांत, ऊंच-नीच से
एक ओर सुविधाओं का अंबार है
दूसरी ओर आंसुओं की भरमार है
मैं खड़ा-खड़ा
इस सम्पन्न समाज को निहार रहा हूं
वर्गभेद के कारण और निवारण पर विचार रहा हूं
मैं देख रहा हूं कमेरों और लुटेरों की दुनिया का फ़र्क
किस सफाई से रचा है यह स्वर्ग और नर्क
कमेरे मेहनत से करते हैं उत्पादन
बनिकों का गणित करता, उसका निष्पादन
कैसा यह व्याकरण, कैसा यह जादू
कमेरे की कुंडली में जम जाता राहू
कमेरा रह जाता है नंगे का नंगा
नहीं लेता बेचारा किसी से भी पंगा
उसकी तो थाती है केवल उच्छवास
कल होगा अपना--यह हौसला-विश्वास
सदियों से डगर यह चली आ रही है
नहीं लीक मिटती नज़र आ रही है
आप ही बताएं महात्मन
ये अन्याय क्यों है?
जो करे अन्न पैदा वही भूखा क्यों है?

महात्मा मुस्कराए धीरे से बोले--
शांत बेटे शांत!
मत करो मन को बिलकुल भी क्लांत
विधि का विधान सब
है कर्मों का लेखा
मत ना करो तुम तनिक भी परेखा
सुनो मैं कहानी सुनाता हूं तुमको
गुन सको तो गुनना, बताता हूं तुमको
थे दो गरीब किस्मत के मारे
दर-दर भटकते थे दोनों बेचारे
न मिली चाकरी न मिला कोई धंधा
उन्हें घूरता शक से हर कोई बंदा
सोना भी हो जाता था उनके हाथों में मिट्टी
किस्मत की उनसे ऐसी थी कुट्टी
जर्जर वसन चाम उनके थे सूखे
अधपेट बेचारे रहते थे भूखे
जूते न चप्पल सदा पैर नंगे
दुतकारे जाते थे वे भीखमंगे
उनमें से एक ने
एक दिन बिचारा
कर्म से यह जीवन
क्यों न जाए सुधारा!
लिखी अपने हिस्से में जो तन पर लंगोटी
नहीं भाग्य में है जो भरपेट रोटी
कंटकों पर ही चलना है जब किस्मत में अपने
तो देखें ही क्यों हम असंभव से सपने
सुलभ जो भी हो जाए प्रभु की कृपा से
उसे हर्ष से हम
लगावेंगे माथे।

उस रंक ने यूं मनन करके गहरा
कहा सब जनों से--हटा धुंध गहरा
क्षमा से बड़ा सुख न दुनिया में कोई
क्षमा ही दिलाए, चित्त की शांति खोई
दया कीजिए निर्बलों, निर्धनों पर
दया कीजिए मूक जीव-जन्तुओं पर
क्रोध करके कलुष अपने मन को न कीजे
क्रोध के ताप में होम शांति न कीजे
लालच बुरी है बला मेरे भाई
पापों की गठरी है इसमें समाई
व्यापार का सिर्फ यह फलसफा हो
आटे में नमक की तरह बस नफा हो
कमाई का एक हिस्सा करो दान भाई
पुण्य से ही होगी खुद की भलाई
भूखा न लौटे, कोई द्वारे पर आकर
गिरे को उठाओ ममता दिखाकर
पीर दूजे की हरने में जो मन लगाए
संत और महात्मा वह शख्स कहाए।

बेटे!
लोगों को भा गई उस रंक की हर बात
जो रहता था मगन ईश-भक्ति के साथ
मुनी का दिया दर्जा लोगों ने उसको
जो कल तक था व्याकुल, तृष्णा थी जिसको
कर्म से उस रंक ने अपनी दुनिया संवारी
गुमनाम था जो हुआ अब हजारी
इशारे पर उसके धन-धान्य बटते
कदमों में मुद्राओं के अंबार लगते
किन्तु भाग्य में था अधपेट रहना
बिन वसन नंगे पैरों ही चलना
वह सिलसिला तो तनिक भी न बदला
किन्तु कर्मों से उसने पद अपना बदला
भूख-प्यास को उसने नियमों में बांधा
पादुका बिन यात्रा से खुद को है साधा
कठिन साधना से कर सरल अपने मन को
शांति का संदेश दिया जन-जन को
उसको मिली जग में गुरु पद की सत्ता
दिनों दिन बढ़ी उसकी जग में महत्ता।

बेटे!
मिलेगा वही, जो लिखा भाग्य में है
इस कहानी से चाहो तो तुम खुद को मथ लो
कर्म से निज जीवन चाहो तो बदलो।

किन्तु सांसारिक ज्ञान है यह मुझसे कहता
क्यों व्यर्थ की भावनाओं में तू बहता
भय है घुसा हर आदमी के भीतर
भय ने ही गढ़ा है यह काल्पनिक ईश्वर
आदमी ने ही रचे हैं ये सामाजिक विधान
उसने ही ताने हैं ऊंच-नीच के वितान
प्रकृति की संपदा है सबके लिए
जिसका जीवन है जितना वो तब तक जिए
है शाश्वत विधान
कि ताकतवर ही करता है कमजोर का शिकार
कमजोर के वश में है बस चीख-पुकार
इसलिए ताकतवर बनो
दुनिया को ताकत से हनो।

फ़लसफ़े ज़िन्दगी के बिखरे पड़े हैं
सलमे-सितारे सभी में जड़े हैं
कोई  फ़लसफ़ा कहता--ताकत की दुनिया
कोई कहता--गुनिया की है सिर्फ दुनिया
प्रकृति का करिश्मा जताता है कोई
किस्मत का लिक्खा बताता है कोई
मगर मेरी बुद्धि में कुछ न समाए
किसे सत्य मानूं समझ में न आए।

Thursday 29 March 2012

पुलिस


महाकवि तुलसीदास ने
रामचरित मानस की रचना से पहले
दुष्टों का स्मरण कर उनकी अभ्यर्थना की थी
कि वे अपनी दुष्टता की छाया से उन्हें बचाए रखें
मेरा भी मानना है इसी तरह हर सभ्य नागरिक को
सामाजिक जीवन में कदम रखते ही
पुलिस की अभ्यर्थना करनी चाहिए
कि वह उसके सम्मान को कोई ठेस न पहुंचाए
ईश्वर से प्राथना करनी चाहिए
कि वह पुलिस की छाया से भी उसे दूर रखे
विद्वानों का तर्क है :
बिना पुलिस समाज में कानून व्यवस्था चौपट हो जाएगी
लेकिन मेरे कड़वे तजुर्बे का तर्जुमा है :
पुलिस ही करती है कानून व्यवस्था को चौपट
सच मानिए, पुलिस के नाम से भूत भी भागते हैं
कानून और आदमी की तो बिसात ही क्या
पुलिस दिन को रात कर सकती है और रात को दिन
सूरज को चांद में बदल सकती है
और चांद को कर सकती है गायब।

जिस अपराधी ने पुलिस से सांठगांठ कर ली
समझो मौज हो गई उसकी जीवन में
वह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता जाएगा
और शर्तों की उल्लंघना से बाहर जाते ही बेमौत मारा जाएगा
किन्तु कोई सभ्य नागरिक पुलिस से  दोस्ती कर लेता है
तो समझो वह अपने जीवन में नरक भर लेता है
चूंकि पुलिस की दोस्ती भी उतनी ही खराब है जितनी दुश्मनी
पुलिस ने आपकी देहरी के अंदर झांक लिया
तो समझो आपको आंक लिया
तब कलह आपकी जीवन संगिनी हो जाएगी
ज़िन्दगी, दुष्ट प्रेमी पुलिस की बंदिनी हो जाएगी।

पुलिस उस शह का नाम है
जिसके एक हाथ में है मात और दूसरे में मौत
शर्मदार तो पुलिस का साया पड़ते ही आधा मर जाता है
मेरा मानना है पुलिस ही बनाती है आदमी को
चोर, बदमाश, स्मगलर, डॉन, माफिया
इसीलिए कहता हूं
शरीफ आदमी को पुलिस से आंख नहीं मिलानी चाहिए
पुलिस से आंख मिलते ही
शरीफ आदमी शरीफ नहीं रहता
चौकी-थाने में उसकी डायरी खुल जाती है
कुल जाति लिख जाती है
और कुंडली में शनि की साढ़ेसाती शुरू हो जाती है
फिर परिवार की आय परिवार नहीं, पुलिस खाती है।

पुलिस रक्षक है :
उनके लिए जो अपनी रक्षा खुद करना जानते हैं
पुलिस भक्षक है :
उनके लिए जो अवैध धंधा करते हैं और नहीं देते पुलिस को हिस्सा
पुलिस तक्षक है :
उनके लिए जो न वैध धंधा करते हैं न अवैध पर चाहते हैं सुरक्षा
कोई पुलिस वाला न सुन ले
इसलिए इस पुलिस कथा को अब यहीं विश्राम देते हैं
और प्रस्थान लेते हैं
नमस्कार!


Wednesday 28 March 2012

राष्ट्र को राष्ट्रभाषा का ताज पहनाओ


मेरे राजनीतिक भाई!
तुमने हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी को कहां धकेल दिया
क्यों नहीं उसको उसका सही स्थान दिया?
स्वाधीनता के संघर्ष में
गंगा-जमुनी हिन्दी ही बनी थी देश की संपर्क भाषा
पूरे देश ने हिन्दी को अपनाया था
हिन्दी के नेतृत्व ने
वंदेमातरम्!
इंकलाब ज़िदाबाद!
अंग्रेज़ो भारत छोड़ो! का अलख जगाया था
सामूहिक आंदोलन चले थे पूरे देश में
हम मिलकर गरजे-गरियाए थे अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ
हमारी एकता रंग लाई
गुलामी से मुक्ति मिली
तिरंगा फहराया
लोकतंत्र कायम हुआ देश में
तुम और तुम्हारे साथियों ने राजकाज संभाला
उम्मीद जगी थी कि हिदीमय हो जाएगा देश
किन्तु कुछ नहीं बदला
हमने अनेक बार किए प्रदर्शन
तब तुमने हिन्दी को राजभाषा घोषित किया
किन्तु संविधान में
अंग्रेज़ी को धीरे-धीरे हटाने का नुक्ता जोड़ दिया
राजकाज में नहीं उतारी तुमने हिन्दी
तुम सत्ता के मद में खो गए
भूल गए कि हिन्दी को विज्ञान से है जोड़ना
न्याय की प्रक्रिया में है मोड़ना
रोज़ी-रोटी के साधनों में ढालना।

मेरे राजनीतिक भाई!
कभी तुम अपनों के बीच गर्व से कहा करते थे
हिन्दी भाषा पूर्णतया वैज्ञानिक है
इसमें जो लिखा जाए, वही बोला जाता है
कोई व्यतिक्रम या व्यायाघात नहीं होता गैर हिन्दी भाषी को
इस भाषा को कबीर और तुलसी ने निखारा है
बिहारी और देव ने संवारा है
सूरदास ने वाणी दी है इसके ममत्व को
रसखान ने जाना है इसके महत्व को
मीरा ने बजाई है इसमें नटनागर की बांसुरी
जायसी ने हटाई है धुध आसुरी
महादेवी ने भरे हैं भाव इसमें नरम मोम से
निराला ने मिलाया है इसे व्योम से
भारतेन्दु ने सरजी है इसे नई सर्जना
दिनकर ने दी है इसे हुकार-गर्जना
इसमें पीर पर्वत-सी लिखी दुष्यंत ने
प्रकृति का प्रेम भर दिया इसमें पंत ने
किन्तु तुम्हारी कथनी और करनी में अंतर रहा।

मेरे राजनीतिक भाई!
तुमने नहीं दिया हिन्दी को उसका सम्मान
हिन्दी अपने ही घर में हो गई है मोहताज
आज अंग्रेज़ी में ही हैं रोजगार के मुख्य साधन
अंग्रेज़ी में ही होता है राजकाज
अंग्रेज़ी में हो रहे हैं अदालत के फैसले
बेगानापन लिए भौचक है आमजन
जाग जाओ भाई
राष्ट्र को राष्ट्र की भाषा का ताज  पहनाओ
हिन्दी भाषा को अपनाओ।


Monday 26 March 2012

मेरे अन्दर का जानवर


मेरे अन्दर के जानवर ने
अनेक बार मुझे नीचा दिखाया है
जब से मैंने होश संभाला है
मेरा इससे युद्ध जारी है
ज्यादातर यही हावी रहा है मुझ पर
मैं हल्का रहा हूं
पर मैंने हिम्मत नहीं हारी है
ज़िदा है मेरा अहसास
कि मैं इंसान हूं।

मेरे अन्दर का जानवर
वहशी है और डरपोक भी
अपनी शैतानियत ये ललचाता और फंसाता रहा है मुझे
हंगामा बरपा है जब भी कभी मुझ पर
यह दुम दबाकर भाग  गया है वहां से
मैं प्रगति की सीढ़ियों के नीचे गिरा हूं
हर बार इसने मुझ पर व्यंग्य किया है कि मैं सिरफिरा हूं
मैंने पकड़ ली है इसकी कमजोरी
यह किताब से डरता है
जब-जब किताब होती है मेरे हाथ में
यह से व्यंग्य करता है
गिर-गिर कर संभालता आया हूं मैं अपने को
उम्मीद है अब नहीं गिरूंगा
जब तक अपने अंन्दर के जानवर को नहीं मार दूंगा
मैं नहीं मरूंगा
अब मेरे चारों ओर किताबें हैं
मैं किताबों के अध्ययन में डूबा हूं
मेर हाथ में भी है किताब
खत्म होने वाला है अब मेरे दुश्मन का हिसाब
मेरा अन्दर का जानवर अब लुंज-पुंज हो गया है
धीमी-धीमी सांसें चल रही हैं उसकी।