Tuesday, 6 March 2012

औरत


(1)
औरत!
जननी है मनुष्य की
मनुष्यता की/सभ्यता की
उलझी है उसकी अपनी जिंदगी
किन्तु सुलझाती है वह मनुष्य की उलझी पहेलियों को
सहयात्री है वह पुरुष की
किन्तु पुरुष छोड़ देता है उसे अक्सर मझधार में
बीच राह में
वह प्रेम की पुजारिन है
उसके कंठ तक लबालब है प्रेम
किन्तु प्रेम में ही मिलता है उसे हमेशा धोखा
वह निश्छल है
पर छली जाती रही है सदियों से
अपने प्रेमी को बचाने के लिए
बनती रही है वह कवच
ढोती रही है आरोप
कुर्बानी देना सिर्फ औरत ही जानती है।
 (2)
औरत!
औरत का ही दूसरा नाम है ममता
ममत्व से भरा है उसका आंचल
दूध की धार
निर्झर दुलार
असीम प्यार
वात्सल्य की रिमझिम फुहार
लुटाती आ रही है वह युग-युगों से
अपनी संतान पर
वह डांटती-डपटती है इसलिए है अपने अंशों को
कि उन्हें अपने कंटकी राहों के कांटे न चुभें
कि वे कुपथ पर जाने का दुराग्रह छोड़ दें
किन्तु हठी नहीं है वह
मन को समझा लेती है
कि ठोकरें खाकर ही सीखता है मनुष्य
और हट जाती है संतान की राह से
झुकना सिर्फ औरत ही जानती है।
(3)
औरत!
जिसे न पुरुष प्रेमी ने समझा
न संतान ने
दो हिस्सों में बंटी रही उसकी जिंदगी
नदी की तरह दो कगारों के बीच
बहना ही रहा जिसका जीवन
इस कगार के कड़वे बोल सुनना
और चुप रह जाना
उस कगार के कड़वे बोल सुनना
और चुप रह जाना
दोनों कगारों के तल्ख बोलों से एक साथ टकराना
और चुप रह जाना
अपने अंतर में उतार लेती है वह क्रोध के भंवर
संतान और प्रेमी दोनों को दुलराती है
दुख में सुख की छाया देखकर वह काट लेती है जिंदगी
सहनशीलता ही औरत की थाती है
यह सहनशीलता ही उसे महान बनाती है।

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