Saturday, 24 March 2012

आज़ादी की हीरक जयंती का जश्न


साठ वर्ष के हो गए हैं आज़ादी और लोकतंत्र!

आज़ादी के पांव में पुर गए हैं बेड़ियों के घाव
हसरतें रह गई हैं अधूरी
उसे मलाल है
क्यों नहीं बरजा उसने तब पहरुओं को
जो सत्ता के दरवाज़े
दुकानों की तरह सजा कर बैठ गए
और धीरे-धीरे सत्ता को बाज़ार में बदल गए
फिर उन्हें अपने ही उत्तराधिकारियों को सौंप गए
देख रही है आज़ादी
सत्ता हो गई है शापिंग माल के मानिंद।

उधर लोकतंत्र मना रहा है आज़ादी की हीरक जयंती
शाही आनबान में गढ़ लिए हैं उसने
सत्ता के कुछ नए मंत्र
आज़ादी का आंदोलन और उसकी कुर्बानियां
लोकतंत्र के लिए हैं सिर्फ किस्से कहानियां
उसे तो होते ही मिला सत्ता का गुलदस्ता
उसका कहना है
कम साधनों में किया उसने संघर्ष
पाया उत्कर्ष
आज उसकी झोली में है उजास ही उजास
यह उसकी अपनी कमाई है
मानसिक व्यायाम से ही मिले हैं उसे सत्ता के नए आयाम
देश की विकास दर छू रही है आकाश
अंधेरा मत देखिए--देखिए सिर्फ प्रकाश
खुशी के माहौल में मुफलिसी का गीत मत गाइए
जश्न का मौसम है जश्न मनाइए।

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