मुझको यह अपना ही गांव
अनचीन्हा-सा क्यों लगता है
कहां खो गया पहले वाला मेरा गांव?
वह गुड़गुड़ाती चौपाल
जो हर आने-जाने वाले से करती थी दुआ-सलाम और सवाल
कहां विलुप्त हो गया गांव-पड़ोस वाले रिश्तों का संबोधन!
बुजुर्गों का खांसना-खसकारना
डांटना-अधिकारना
छोटे-बड़े के बीच आंखों की शरम
पड़ोसी के दुख-सुख में सरीक होने का धरम
अलावों पर ठहाके, कहानी और किस्से
मजाकों के मजमे और यारों के घिस्से
सावन के झूले/वह घर-घर दिवाली
फागुन की होली/हुरियारे मवाली
आगत के स्वागत में वह मीठा पानी
बीते जमाने की बीती कहानी
बहन-बेटियों के लिए वह विशेष अपनत्व
पारिवारिक संबंधों का वह अनुपम घनत्व
पावन रिश्तों की वह पावन ठिठोली
वर्जना में भी महकती थी जहां मीठी बोली
पकवानों की सुगंध
आगतों का प्रबंध
खेत-खलिहानों के गीत
दंगल और लोक संगीत
पशु-पक्षियों से प्रेम
रसोई का नेम
गाय को चंदिया और कुत्ते को टूंका
चिड़ियों को चुग्गा और चींटियों को बुक्का
अब तो सब कुछ बदल गया है
मेरे गांव को शहर का रोग पल गया है
फासले बढ़ गए हैं पारिवारिक रिश्तों में
सिमट गए हैं सब अपने-अपने हिस्सों में
जिस कुएं पर कभी पनघट की रौनक थी
उस पर दुबका-सा बैठा है चरस-गांजा बेचने वाला
नीचे ऊंघता-सा बैठा है जूते गांठने वाला
स्कूल की क्यारी में मास्टर ने लगा रखे हैं भांग के पौधे
फूलों के गमले पड़े हैं औंधे
लड़के स्कूल से निकलते-निकलते बन रहे हैं अपराधी
शहर में चली गई है गांव की आधाी आबादी
खेत खत्म होते जा रहे हैं
वहां कल-कारखाने उगते जा रहे हैं
लोग इतने हो गए हैं सयाने
कि एक जमीन के दस-दस लोगों से ले रहे हैं बयाने
पुलिस चौकी खुल गई है चौपाल की जगह पर
दारू का ठेका है अब शीतला-थान की सतह पर
अब सुनाई नहीं देती कोयल की कूक
और कौवों की कांव-कांव
जाने कहां खो गया वह पहले वाला मेरा गांव।
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