Thursday, 9 February 2012

तथाकथित असभ्य अतीत


गांव को शहर ने इठलाती सुंदरियों की तरह मोहा
गांव दीवानों की तरह दौड़ा उसे बाहों में भरने को
ज़मीन और आसमान का फर्क़ निकला
शहर के आवरण और आचरण में
हाथ लगा सिर्फ छलावा।

गांव को पीछे पसरी दिखती है अपनी मूर्खता
फलदार वृक्षों की छाया
खेत खलिहानों का हरहरापन
कुनकुनी धूप और ठंडी बयार
मिट्टी के घरों का तृप्ति भरा चैन
पितृजनों की छत्रछाया
चांद-तारों भरा अपना आकाश
चूड़ी, पायल, खांसने-खसकारने के संकेत
रिश्तों का समीकरण
व्यवहारों को व्याकरण
पक्षियों के चिचियाने का अपनापन
पशुओं का मूक आत्मिक व्यवहार
छाछ, लोनी, महेरी का स्वाद
चूल्हे की रोटी
गुड़ का मलीदा
दूध-दलिये का नाश्ता
चने का साग
अलाव में भुनी आलू-मटर-सकरकंदी
भले ही कहो इसे पिछड़ी मानसिकता
चैन की बंसी की वह धुन बहुत ही मधुर थी गांव के लिए।

शुरू हुई गांव की पहली शिक्षा-यात्रा
भाया मदमाती बंजारन के यौवन-सा कस्बा
चितवन का नशा
गदराई देहयष्टि
रूप सज्जा की झिलमिल
मोहनी बंजारन का जादू चल गया
गंवई लगने लगा गांव को अपना परिवेश।

गांव को कस्बाई आंगन भाने लगा
मन साप्ताहिक छुट्टी में भी घर जाने से कतराने लगा
बंजारन ने सिखलाया बीजगणित, समीकरण, वर्गमूल
बदल दी वैचारिकता आमूलचूल
महीने-पन्द्रह दिन में गांव जब लौटता अपने घर
उसे ग्रामीण जीवन लगता बेशऊर
ज्ञान-विज्ञान की किताबी बातें
मन के आकाश को भर देती रंग-बिरंगी पतंगों से
पुलकित होता मन उमंगों से।

शहर से खबर उड़कर आती नई फिल्मों की
हर महीने गढ़ लेता गांव उसके लिए बहाना
शाम को दूर से झिलमिलाती दिखती शहर की लाइट
रात के अंधेरे सन्नाटे में
प्रेम और सौंदर्य से भरपूर
अंगराग, कुंकुम, मेहंदी से गंधाती
सजीले परिधानों में सजी
हीर-कनक की नथनी-सी चमकाती
हार, सीतारामी, मोतीमाला, हथफूल गमकाती
कंगन और चूड़ियों की मद्धिम खनखन
शीशफूल, छाप, करधनी, पायल, नूपुर की  झुनझुन
आहिस्ता-आहिस्ता सेज की ओर बढ़ती
रुनझुन पग धरती रमणी-सा
आमंत्रण देता फिल्मों की आदर्श नारी-सा शहर।

बंजारन से टूटने लगा गांव का भरम
अलसाया-सा दिखने लगा उसे उसका रंग-रूप
देह से आती कूड़े के ढेर और नालियों की दुर्गंध
बोली से उबकती गालियों की गंद
लुभाते उसे शहर के शिक्षा के अगले पायदान
मन आतुर होता भरने को उड़ान
घूंघट के पट में झिलमिलाती नथनी-सी लगतीं शहर की लाइटें
शशोपंज में कटे गांव के कुछ दिन
फिर एक दिन कर दिया उसने शहर के लिए प्रस्थान।

शहर के पक्के घर-भवन
विशाल प्रासाद
गगनचुंबी अट्टालिकाएं
मनमोहते रंगबिरंगे उद्यान
जगमगाते आधुनिक बाजार
विभिन्न सामग्रियों से ठसाठस भरे गोदाम
मनोरंजन के अनेकानेक साधन
शिक्षा के बहुआयामी संस्थान
तरह-तरह की अकादमियां
संगीतघर-नाट्यघर
आश्चर्यजनक कलाओं के प्रदर्शन-घर
पुलिस, कोतवाल
न्यायालय, जेल
राजनीति के खेल
एक नई दुनिया दिखी शहर में
गांव को हर कदम पर हुआ पुलकन का अनुभव
ठीक उसी तरह
जैसे पहली बार होता है ससुराल में।

गांव पर शहर का खुमार गढ़िया गया
प्रतिदिन मोहता शहर की नई चितवन का नज़ारा
शहर ने ‘तू-तेरे’ की बोली का अपनत्व छुड़वाया
‘जी-जनाब’ का परायापन खिखलाया
मीठी-मीठी नींद में बढ़ता ही रहा सपनों का संसार
गांव ने खूब उलीची परिजनों के पसीने की गाढ़ी कमाई
नाचता-ठुमकता रहा वह शिक्षा के पायदानों पर
ज़ुबान गिटगिटाना सीख गई फिरंगी जुमले
सोच में हो गया परिवर्तन
लिपिस्टिक और सुवासित प्रसाधनों से सुसज्जित
आभरणहीन और अल्पवस्त्रा
आंखों में लिए मदिरा के प्याले
छरहरी देह की धनी
तर्कशील-छबीली
स्वभाव की लचीली
निर्भीक और साहसी
हर कदम साथ चलने को आतुर
पुरानी लीकों को ठुकराती
क्लब, आडीटोरियम, मॉल
होटल, मोटल, रेस्टोरेंट की समर्थक
विचारों की भव्यता
दिखाती शासन की क्षमता
मन को मोह गई आधुनिक सभ्यता।

‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है’
भरमाता-सा लगता है अब गांव को यह तर्क
प्रगति-पथ को पकड़
अपनी जड़ को छोड़ देना
बन जाना अपने ही वृक्ष के लिए अमरबेल
गांव को नहीं भाता
उसका मन कहता है--
बसा भले ही ले मनुष्य दूसरे ग्रहों पर दुनिया
उसके सिर पर लदा रहेगा उसका तथाकथित असभ्य अतीत।

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