Friday, 9 March 2012

मैं देख रहा हूं


लहलहा रहे हैं अनेक ज्ञान वृक्ष
बुद्धि-परीक्षा के नाके लगे हैं हर ज्ञान वृक्ष के नीचे
सजग बुद्धि वाले चेहरे नाका पार कर पहुंच रहे हैं सीढ़ियों से वृक्ष पर
उनकी पहुंच में हैं अब वृक्षों के फल
जिन्हें खाकर हो रहे हैं वे ज्ञानवान
जड़-मूढ़ बुद्धि वाले या लापरवाह चेहरे
ताक रहे हैं धरती, और शून्य आकाश को
बीन रहे हैं पत्तियां, सूखी टहनियां, अधखाए फल, बीज, गुठलियां
अनेक चेहरे होकर गंभीर
जुट गए हैं दूसरे कामों में
अनेक बना रहे हैं भूमि में क्यारियां और कर रहे हैं बिजाई
सींच रहे हैं फसल
अनेक लग गए हैं पथ बनाने में
अनेक वस्त्र बनाने में
अनेक भंडारण विधि और सुरक्षा के साधन में
अनेक गीत-संगीत के गायन/मेहनतकशों के उत्साह वर्धन में
अनेक चेहरे गुस्साए और तमतमाए हुए
लगे हैं खोदने ज्ञान-वृक्षों की जड़।

मैं देख रहा हूं
ज्ञान-वृक्षों के शिखरों पर अद्भुत है आलोक
दिख रहे हैं वहां से दूसरे सघन और विशाल ज्ञान-वृक्ष
आलोक मार्ग से पहुंच रहे हैं ज्ञानी अब विशाल वृक्षों तक
सभी वृक्षों के शिखर द्वार पर
बैठे हैं यक्ष
जो माप रहे हैं ज्ञान-ज्ञिज्ञासु आगतुकों को
कमतर को उतार रहे हैं भूमि पर
चयनितों को दे रहे हैं पंख
चयनित ‘पंखी’ उड़-फुदक रहे हैं विशाल वृक्षों की डाल-टहनियों पर
गुन रहे हैं वृक्षों की सघनता/विशालता/कटुता/मिठास को
तोल रहे हैं पंखों को
नाप रहे हैं आकाश को
बेध रहे हैं दिग-दिगन्त को
निश्चित अवधि के बाद
हर वृक्ष पर आती हैं कुछ ‘चिड़ियां’
जो परखती हैं हैं उन ‘पंखियों’ को
मापती हैं उनमें
उड़ान की क्षमता
दिग-दिगन्त की पहचान
हवा का दाव
शीत-ऊष्मा का प्रभाव
कटुता-मिठास
फिर उनके पंखों पर छाप देती है उनकी पहचान
और खोल कर वृक्षों का झरोखा
उतार देती हैं ‘पंखियों’ को जमीन पर।

मैं देख रहा हूं
उतर कर वे ऊर्जावान ‘पंखी’
और लौटे ज्ञानी
सुधार रहे हैं अपने-अपने घरों को
खेत-क्यार को
अपने बांधवों को
समाज को।

मैं देख रहा हूं
हर चेहरे में खुद को तलाश रहा हूं
हूं मैं भी कहीं इनमें ही
क्या हूं, क्या है मेरी पहचान?
यह मुझे नहीं मालूम।

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