15 सितंबर, 2008, दिन सोमवार, समय 2:10, दोपहर, लाजपतनगर, हिसार। राज्यकवि की उपाधि से विभूषित कवि उदयभानु हंस से साक्षात्कार लेने के लिए मैंने सोमवार का दिन निश्चित कर रखा था। मैंने उन्हें बताया था कि मैं 11:30 तक हिसार पहुंच जाऊंगा। हिसार में मुझे तीन साहित्यकारों के साक्षात्कार लेने थे, जिनमें एक हंसजी थे। एक दिन हिसार रुकने का मैंने कार्यक्रम बनाया था। सबसे पहला साक्षात्कार हंसजी का ही लेना था। मेरा अंदाजा था कि मैं सुबह सात बजे पानीपत से हिसार के लिए निकलूंगा तो ग्यारह बजे तक हर हालत में हिसार पहुंच जाऊंगा। लेकिन जब मैं पानीपत बस स्टैंड पर पहुंचा तो 8:10 हो रहे थे। वहां उस वक्त हिसार के लिए सीधी बस कोई नहीं थी। अत: मैंने रोहतक से हिसार जाना तय किया। तुरन्त ही रोहतक जाने वाली बस पकड़ी। इस तरह मैं हिसार दोपहर एक बजे पहुंचा।
वहां पहुंचकर मैंने हंसजी से मोबाइल पर संपर्क साधा और पूछा कि मैं इस समय हिसार बस स्टैंड पर हूं। आपके घर तक आने के लिए मैं क्या साधन अपनाऊं? उन्होंने बताया कि बस स्टैंड के सामने ही कचहरी रोड के टैंपो में बैठो और कांग्रेस भवन से पहले वाले मोड़ पर उतरो। वह मोड़ लाजपतनगर का है। अत: मैं टैंपो के माध्यम से पन्द्रह मिनट के अंतराल पर हंसजी के निवास पर था। हंसजी से मेरी अनेक बार टेलीफोन पर बात हो चुकी थी, किन्तु रूबरू न मैंने उन्हें देखा था और न उन्होंने मुझे।...हंसजी के पास मुझसे पहले ही एक बैंक का एजेंट बैठा था। वे उससे एक रिकरिंग एकाउंट खुलवा रहे थे। आधा घंटे तक वे एकाउंट की औपचारिकताओं में उलझे रहे। उसके बाद मुझसे मुखातिब हुए। घर पर वे और उनका एक पौत्र गुंजन था। मालूम हुआ गुंजन की मां शहर के किसी लैब में टैक्नीशियन हैं। शाम को आएंगी। जलपान की औपचारिकता के बाद मैंने उनसे कहा कि आप मुझे अपनी प्रकाशित पुस्तकें दिखा दें। मैं उनका अवलोकन करना चाहता हूं। हंसजी ने सर्वप्रथम छह-छह सौ पृष्ठों की चार खंडों में छपी अपनी रचनावली मेरे सामने रखी। उसके बाद अन्य फुटकर पुस्तकें भी उन्होंने लाकर रख दीं। मैं उनकी भूमिका और टिप्पणियां पढ़ने में मशगूल हो गया। लगभग पौन घंटे बाद मैंने साक्षात्कार शुरू किया।
प्रश्न--हंसजी, आपमें साहित्यिक रुचि कब और कैसे विकसित हुई?
उत्तर--मेरे पिता पंडित विश्वनाथ शर्मा स्वयं जनकवि थे।...वे कथा बांचते थे और अपने हिन्दी और मुल्तानी भाषा में लिखे परंपरागत भजनों को बीच-बीच में कथा के दौरान सुनाते थे। वे संस्कृत में श्लोक रचा भी करते थे। मैं उनके इस विशेष गुण को कौतुहल एवं आश्चर्य से देखा करता था। उनके प्रभाव से मुझमें भी तुकबदी करने की ललक जाग उठी। यह बात सन् 1940 के आसपास की है।...पिताजी मुझे भी कथा के आयोजनों में अपने साथ ले जाते थे और अक्सर अपने आसन के पास खड़ा करके मुझसे कुछ न कुछ बुलवाते थे। दरअसल उनकी मंशा थी कि मैं भी उनकी तरह ही धर्म-प्रचारक ही बनूं।...इस तरह मैं भी अपनी तुकबंदियां उनके कथा मंच से सुनाने लगा।...पिताजी के पुस्तक भंडार में मुझे उन दिनों राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त की काव्य-पुस्तक ‘भारत भारती’ पढ़ने को मिली। उसे पढ़कर मेरे अन्दर वैसे ही भक्तिपूर्ण गीत लिखने की भावना पैदा हुई। और मैंने ‘भारत भारती’ की शैली और हरीगीतिका छंद में ही कई देशभक्ति की कविताएं लिखीं। वह समय गांधीजी के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ (1942) का था।...उन्हीं दिनों मैं मुल्तान में सनातन धर्म कालेज में संस्कृत पढ़ने गया हुआ था। उस दौरान मैं संस्कृत, हिन्दी और उर्दू तीनों भाषाओं में कविता लिखने का अभ्यास करने लगा था।
प्रश्न--आपने पहली रचना कब और कौन-सी लिखी?
उत्तर--मेरी पहली रचना कविता थी जो 1942 में गोस्वामी गणेशदत्तजी की चार पेज की प्रशस्ति के रूप में लिखी गई थी, जिसे मैंने हरीगीतिका छंद में आबद्ध किया था।
प्रश्न--आपकी पहली परिपक्व रचना कौन-सी है, जिसे लिखकर आपको प्रशंसा भी मिली और आत्मसंतोष भी हुआ?
उत्तर--मैंने 1945-46 में ‘चिंगारी’ नामक गीत लिखा था जो अंग्रेज़ों के खिलाफ आज़ादी का आह्वान है। यह गीत राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत है। मुझे यह गीत लिखकर और मंच पर सुनाकर बहुत संतोष मिला था। संस्कृत में भी परिपक्व रचना ‘पार्वती पंचकम्’ अयोध्या से प्रकाशित साप्ताहिक संस्कृतम् में छपी थी। जिस पर मुझे ‘कवि भूषणम्’ की मानद उपाधि का प्रमाण-पत्र (1943) मिला था। उर्दू में सर्वप्रथम मैंने कुछ मुक्तक हिन्दू-मुस्लिम एकता पर आधारित पहली बार (1946) में मुशायरे में सुनाए और सराहे गए।
प्रश्न--आप अपने को मूल रूप में क्या मानते हैं?
उत्तर--मैंने वैसे चार कहानियों के साथ अन्य प्रकार का गद्य भी लिखा है। मैं मानता हूं कि मैं कहानी लेखन में दक्ष नहीं हूं। मैं अपने को मूलत: कवि ही मानता हूं। कविता की विभिन्न विधाओं में ही मैंने अपने को सक्षमता के साथ अभिव्यक्त किया है।
प्रश्न--हिन्दी के किन साहित्यकारों का प्रभाव आप पर पड़ा? आपके प्रिय कवि कौन हैं?
उत्तर--आरम्भ में मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय भावना से प्रभावित हुआ। उसके बाद मुझे हरिवंशराय बच्चन के काव्य ने बहुत प्रभावित किया। बच्चनजी के मधुर गीत मुझे अत्यंत प्रिय हैं। उनकी सरल-सुबोध भाषा, मर्मस्पर्शी भाव, रोचक शैली और प्रभावोत्पादक प्रस्तुतीकरण मुझे बहुत ही प्रभावित करता रहा। वे मेरे आदर्श रहे। उनके अतिरिक्त जयशंकर प्रसाद, रामधारीसिंह दिनकर का काव्य और फिराक गोरखपुरी की शायरी भी मुझे भाती है। लेकिन सबसे अधिक प्रिय बच्चनजी ही रहे। यूं समकालीनों में नीरज और रामावतार त्यागी का मैं प्रशंसक हूं।
प्रश्न--जीवन यात्रा की वे कौन-सी प्रेरणादायक साहित्यिक पुस्तकें हैं जिन्हें आप आज भी नहीं भूले हैं?
उत्तर--जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ रामधारीसिंह दिनकर की ‘उर्वशी’, मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ और फिराक गोरखपुरी का रुबाई संग्रह मेरे जेहन में आज भी उपस्थित है और रहेगा।
प्रश्न--आपके काव्य की मूल संवेदना क्या है?
उत्तर--राष्ट्रीय भावना, मानव मूल्य और शृंगार रस की त्रिवेणी मेरी कविता के मूल स्वर हैं। सूत्र रूप में मेरे काव्य की मूल संवेदना ‘सत्यम् शिवम् सुदरम्’ में समाहित है। यद्यपि मैंने युगबोध के बहाने विविध भावनाओं के सतरंगे इन्द्रधनुष की छवियां चित्रित की हैं। तथापि प्रधानतया वीररस तथा शृंगार रस ही मेरे काव्य के दो किनारे हैं, जिनमें मानव जीवन की धारा सम-विसम रूप में बहती हुई आध्यात्मिकता के अनंत सागर में समा जाती है।
प्रश्न--साहित्यिक क्षेत्र में आपको प्रोत्साहित और प्रेरित किसने किया?
उत्तर--सर्वप्रथम पिताजी को ही मैं अपना प्रेरणास्रोत मानता हूं।...पिता के एक शिष्य थे रामकृष्ण भारती। वे किशोरावस्था में पिताजी से संस्कृत पढ़ते थे। लाहौर में जाकर वे अच्छे गीतकार हो गए थे। उन्होंने ‘निर्झर’ नाम का अपना गीत संग्रह (1940) पिताजी को गुरु होने के नाते भेंट किया। मैंने वह गीत संकलन पढ़ा। पहली बार गीत लिखने की प्रेरणा मुझे भारतीजी के संकलन से मिली।...संस्कृत लेखन में पंडित दीनानाथ शास्त्री सारस्वत ने मुझे लिखने और संस्कृत की पत्रिकाओं में प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया। पहले मैं साधारण छंदों में कविता लिखता था। शास्त्रीजी ने मुझे अन्य छंदों में कविता लिखने को प्रोत्साहित किया। उर्दू में अल्लाबख्श कस्फ़ी (बुलबुल-ए-मुल्तान) एक प्रसिद्ध शायर और मेरे स्कूल के ड्राइंग मास्टर फक़ीर नूर मुहम्मद नूर। मेरे गांव के इन दोनों शायरों ने मेरा मार्गदर्शन किया।
प्रश्न--आप मार्क्सवााद से कभी रूबरू हुए?
उत्तर--मैं किसी वाद-विवाद को पसंद नहीं करता। मैं हिन्दी के साहित्य जगत में प्रचलित तथाकथित वादों से मुक्त रहा हूं। उन वादों मेंं मेरी कभी रुचि नहीं रही। मैं सिर्फ साहित्य के प्रति प्रतिबद्ध हूं। आप इसे मेरी मानव-कल्याण के प्रति प्रतिबद्धता मान सकते हैं। मेरा विश्वास है, सच्चा कवि या लेखक जनवादी (वामपंथी) हो न हो वह जनकवि अवश्य होता है।
प्रश्न--आप साहित्य लेखन में अपनी कौन-सी इच्छा चाहते हुए भी पूरी नहीं कर सके?
उत्तर--मैंने सन् 1966 में महात्मा गांधी पर ‘वामन विराट’ नाम से महाकाव्य लिखने की योजना बनाई थी। इसके लिए आवश्यक जानकारी भी जुटा ली थी। परन्तु गुरु गोविन्द्रसिंह की संक्षिप्त आत्मकथा ‘विचित्र नाटक’ पढ़ने का संयोग ज्यों ही मुझे मिला, मेरे मन-मस्तिष्क में सहसा एक अद्भुत भावाद्रेक उठा, भीतर से आवाज़ आई और मैं ‘संत सिपाही’ महाकाव्य लिखने को विवश हो गया। गांधीजी का चमत्कारी चरित्र विशेष रूप से दक्षिण अफ्रीका में उनका संघर्ष और चिन्तन आज भी मुझे प्रेरित करता है। परन्तु अब जीवन की संध्या में महाकाव्य लिखने के लिए अपेक्षित सुदीर्घकाल तक भावलोक में लीन रहना संभव नहीं। इसी प्रकार अहल्या, द्रौपदी, सीता-निष्कासन पर राजाराम की व्यथा भी मुझे उकसाती, विचलित करती रहती है।
प्रश्न--आपको लिखने के लिए कैसे वातावरण की आवश्यकता होती है?
उत्तर--जब मैं लिखने के लिए अपने अंदर दबाव महसूस करता हूं, अर्थात जब मन आतुर हो उठता है तो मैं शोरगुल में, बस या रेलयात्रा में सफर करते हुए, क्लास रूम में पढ़ते हुए भी लिख लेता हूं। एकान्त का होना मेरे लिए अनिवार्य नहीं है।
प्रश्न--आप क्यों लिखते हैं?
उत्तर--दरअसल लेखक को प्रकृति ने ही लिखने की जन्मजात सौगात दी है। हर लेखक-कवि जानता है कि भावों को शब्दों में ढालना उसकी मजबूरी है, चूंकि उसी में उसको आनंद मिलता है। बिना रचनाकर्म किए वह रह ही नहीं सकता।...तो भाई सारथी, यूं समझो कि लिखना मेरे लिए अपने को व्यक्त करने और समाज को अपने विचार बांटने का एक प्रिय माध्यम है। मैं तो यही कहूंगा कि मेरे अन्दर के भाव स्वत: ही शब्द बनकर निकलते हैं और कागज़ पर उतरते हैं। वास्तव में, मैं अपनी भावना को, पीड़ा को शब्दों में व्यक्त कर अपने मन का बोझ हल्का करना चाहता हूं। इसी से संबंधित कविता की दो पंक्तियां हैं--
जन्म लेती नहीं आकाश से कविता मेरी,
फूट पड़ती है स्वयं धरती से कोंपल की तरह।
प्रश्न--आपकी रचना-प्रक्रिया क्या है?
उत्तर--मेरी रचना-प्रक्रिया कोई विशेष नहीं है।...कोई घटना या अनुभव जब मेरे मन-मस्तिष्क में उद्वेलन करने लगता है तो वह वैचारिकी के साथ द्वंद्व करते हुए आकार ग्रहण करने के लिए छटपटाता है और आकार निश्चित होते ही शब्दों के माध्यम से रचना का विस्फोटन हो जाता है। यह एक स्वत: प्रक्रिया है।
प्रश्न--आप बैठकर, लेटकर, कुर्सी-मेज पर, टेक लगाकर, गाव-तकिया लगाकर आदि में से कैसे लिखते हैं?
उत्तर--मैं तख्तपोश पर बैठकर लिखता हूं, जिसमें तकिया पीछे लगा होता है। वैसे मैं मेज-कुर्सी पर बैठकर भी लिख लेता हूं।...अन्य किसी प्रकार से नहीं लिखा। हां बाद में लिखने के लिए नोट्स ज़रूर तैयार कर लेता हूं।
प्रश्न--आपको लिखने के लिए कैसे माहौल की ज़रूरत होती है?
उत्तर--जब लिखने का दबाव बन जाता है तो मैं हर परिस्थिति में लिख लेता हूं।...मैंने बस व रेल में सफ़र करते हुए भी लिखा है। मुझे इसके लिए एकान्त जैसी बाध्यता की ज़रूरत नहीं होती।
प्रश्न--कभी मूड उखड़ जाए तो मूड बनाने के लिए आप क्या उपाय करते हैं?
उत्तर--मेरे साथ कभी ऐसा नहीं होता।
प्रश्न--साहित्य लेखन के जरिए क्या जीविकोपार्जन किया जा सकता है?
उत्तर--हिन्दी में तो संभव नहीं है। इसका मुख्य कारण है कि आज देश के हिन्दी क्षेत्र का आदमी पुस्तक के महत्व को जानता ही नहीं। जबकि हिन्दी के विपरीत बंगला भाषी लोग पुस्तक के महत्व को जानते हैं। वहां तो पुस्तकें एक-दूसरे को उपहार में देने की संस्कृति विकसित है। मराठी, गुजराती या दक्षिण भारत की भाषाओं के बारे में तो मैं नहीं जानता, परन्तु हिन्दी भाषी प्रदेशों की सामान्य धारणा और स्थिति ऐसी ही है। अत: हिन्दी लेखन जीविकोपार्जन का साधन मेरे विचार से नहीं बन सकता।
प्रश्न--अंग्रेज़ी में पुस्तकें लाखों में छपती और बिकती हैं। अंग्रेज़ी लेखक रातों-रात हीरो बन जाता है। हिन्दी में ऐसा क्यों नहीं है?
उत्तर--यह प्रश्न पहले वाले से ही जुड़ा है। अंग्रेज़ी अंतरराष्ट्रीय भाषा है। उसका बाज़ार विस्तÞत है। अंग्रेज़ी की पुस्तक को या अनुवाद को अन्य भाषा-भाषी भी खरीदते हैं। दूसरे इसके लिए प्रकाशक भी दोषी हैं। वे हिन्दी की पुस्तक का इतना अधिक मूल्य रखते हैं कि आम आदमी की पहुंच से वह बाहर होता है।...जब तक हम हिन्दी में पुस्तक संस्कृति विकसित नहीं करेंगे तब तक स्थिति ऐसी ही बनी रहेगी।
प्रश्न--आपका जन्म कब और कहां और किसके यहां हुआ?
उत्तर--मेरा जन्म 2 अगस्त 1926 को मुल्तान मियांवाली रेलवे लाइन पर दायरा दीनपनाह नाम के एक कस्बे में पिता पंडित विश्वनाथ शर्मा के यहां माता श्रीमती गणेशदेवी की कोख से हुआ। मैं उनका इकलौता लड़का हूं। मेरी दो बहनों में अब (छोटी) एक जीवित है।
प्रश्न--आपकी शिक्षा-दीक्षा कितनी और कहां-कहां हुई?
उत्तर--दायरा दीनपनाह कस्बे के मिडिल स्कूल से मैंने उर्दू और फारसी में शिक्षा पाई। मुझे हिन्दी और संस्कृत घर पर पिताजी पढ़ाते थे। उनकी इच्छा थी कि मैं उनकी तरह ही कर्मकांडी पंडित और धर्मोपदेशक बनूं। इसीलिए उन्होंने मुझे दरियाखान ज़िला मियांवाली में (1940) में हरमिंदर संस्कृत विद्यालय में पढ़ने भेज दिया, जिसे स्वामी अमरदेव चला रहे थे। शुरू-शुरू में मुझे अपने हाथ से कपड़े धोना और ज़मीन में सोना अच्छा नहीं लगा। बड़ी मुश्किल से मैंने वहां दो साल गुजारे। बाद में पिताजी ने मुझे मुल्तान के संस्कृत कालेज में पढ़ने भेज दिया। वहां शास्त्री की परीक्षा मैंने 1945 में उत्तीर्ण की। पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर में सर्वप्रथम रह कर पास की तथा तुरंत उसी कालेज में शिक्षक हो गया। मैंट्रिक परीक्षा मैंने 1946 में दी। और देश विभाजन के बाद एफए परीक्षा दोबारा और बीए डिग्री (1950) लेकर एमए हिन्दी (1962) में दिल्ली यूनिवर्सिटी से उत्तीर्ण की।
प्रश्न--आपका पालन-पोषण कैसी परिस्थितियों में हुआ?
उत्तर--मेरा पालन-पोषण निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की परिस्थितियों के बीच हुआ है। घर में कभी किसी चीज़ का तो कभी किसी चीज़ का अभाव रहता था।...हालंकि खाने-पीने की कमी नहीं थी, लेकिन कोई अतिरिक्त खर्च आ जाने पर समस्या खड़ी हो जाती थी।...मेरी मां ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर चक्की पीसती थीं। जिजमानों के यहां हंदा (श्रद्धा-सीधा) मांगने जाती थीं। पिताजी पंडिताई करते थे। तायाजी वैद्य थे, मां तायाजी की दवाइयां कूटती थीं। वह धर्मप्राण, मूक तपस्विनी देवी थीं।
प्रश्न--आपको अपनी माता की ममता और स्नेह कितना प्राप्त हुआ?
उत्तर--मेरी मां सीधी-सादी घरेलू महिला थीं। वे अनपढ़ थीं किन्तु स्वभाव में एकदम गऊ थीं।...देवीस्वरूपा। बहुत ही शांत स्वभाव था उनका। वे मुझे बहुत प्यार करती थीं।
प्रश्न--आपके पिता का स्वभाव कैसा था?
उत्तर--मेरे पिता बहुत ही अनुशासनप्रिय थे। वे निर्भीक और स्पष्ट वक्ता थे। उनका घर में दबदबा था। अनुशासनहीनता उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं थी। वे कठोर अनुशासन का पालन कराते थे।
प्रश्न--अपने पिता के स्नेह का कोई वाकया आपको याद है?
उत्तर--हां। 1966 में मुझे राज्यकवि का सम्मान मिला तो प्रदेश के हर बड़े शहर में अभिनंदन समारोह आयोजित हुए।...उन दिनों हम करनाल में रहते थे। करनाल में अभिनंदन समारोह आयोजित हुआ। समारोह से फारिग होकर मैं घर पहुंचा तो पिताजी घर के बाहर बैठे मिले। मैंने उनके पांव छुए। पिताजी ने मुझे आशीर्वाद देते हुए मुझसे दो मिनट बाहर ही खड़ा रहने को कहा। खुद वे अन्दर गए और बाज़ार से खरीदकर लाई हुई गोटे-फिरन की चमकीली माला लाए और मुझे पहनाकर अपने गले लगा लिया। उस क्षण को मैं आज तक नहीं भूला। एक पुत्र के लिए इससे बड़ा स्नेह पुरस्कार और क्या हो सकता है।
प्रश्न--आपने अपने पिता का गुस्सा भी तो झेला होगा?
उत्तर--मेरे पिता ने डांट और गुस्से का प्रदर्शन मेरे ऊपर कभी नहीं किया। पहली बात तो यह कि मैं उनका अकेला लड़का था। दूसरी बात उन्होंने मुझे योजनाबद्ध तरीके से पाला-पोषा और पढ़ाया। तीसरी बात यह कि मैं चौदह वर्ष की अवस्था से ही घर से बाहर पढ़ने चला गया था।
प्रश्न--आपके जीवन का टर्निंग पाइंट क्या है?
उत्तर--दिल्ली छोड़कर हिसार आकर राजकीय कालेज हिसार में प्राध्यापक के रूप में नौकरी ज्वाइन करना मेरे लिए एक टर्निंग पाइंट था।...दरअसल एमए पास करते ही मैं उन दिनों रामजस कालेज दिल्ली में बना रहता तो चार-छह महीने बाद नए शिक्षा सत्र में स्थाई होने की संभावना थी। और शीघ्र अधिक प्रसिद्धि और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता था।...यूं आज भी मेरी उपलब्धियां कम नहीं हैं। किन्तु देश की राजधानी में रहना मेरे लिए अधिक लाभदायक सिद्ध होता।
प्रश्न--प्यार करना नैसर्गिक क्रिया है। आपने युवावस्था में प्रेम भी तो किया होगा?
उत्तर--प्यार प्रसंग की घटनाएं मेरे साथ दो बार हुर्इं। एक बार किशोरावस्था में और दूसरी बार युवावस्था में मैं इस अनुभूति से सराबोर हुआ हूं। पहला प्रसंग देश के विभाजन से पूर्व पाकिस्तान का है।...एक दिन पड़ोस में रहने वाली एक किशोरी अपनी बड़ी बहन के साथ इस मकसद से आई कि उसे प्रभाकर की फिर तैयारी करा दूं, क्योंकि वह एक बार फेल हो चुकी थी। उस समय मैं पिताजी की बैठक में कोई पुस्तक पढ़ रहा था। वह एकदम से भीतर कमरे में आई और खिड़की से सिर झुकाकर उसने बड़ी-बड़ी आंखों से भीतर झांका। ऐसा करते समय उसके लम्बे घुंघराले केश नीचे लटक रहे थे। उसकी और मेरी नज़रें मिलीं। उसकी वह उदास दिलकश नज़र मेरे अंतरमन में गहरे तक उतर गई। उसके घुंघराले काले केशों में उसका चेहरा मुझे ऐसा लगा जैसे काली घटाओं में छिपा चांद। मुझे वह स्वर्ग से उतरीअप्सरा-सी मालूम हुई। उसका यह रूप मेंरे अन्तर तक उतर गया। उसे भी मेरे अंतरमन की यह प्रेमानुभूति प्रकट हो गई थी। उसे पढाने का प्रस्ताव मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर तो हम पढ़ाई के बहाने प्रतिदिन एक-दूसरे को जी भरकर देखते-बात करते, हंसते-खिलखिलाते, एक-दूसरे की तारीफ करते। वह पढ़ने में बहुत होशियार थी। हम पढ़ते कम, प्यार-मनुहार की बातें ज्Þयादा करते थे। बिछुड़ना हम दोनों के लिए असह्य हो गया। वह घर जाकर अपने दुमंज़िले मकान की छत पर पहुंच जाती और इधर में भी। फिर हम दोनों आंखों ही आंखों में दिन में कई बार बातें करते-रहते। जल्दी ही उन दिनों दशहरे का पर्व आ गया। रामलीला हमारे घर के बिलकुल सामने बाज़ार की खुली जगह पर होती थी। हम दोनों रामलीला देखने के बहाने घर के ऊपरी बड़े कमरे की एक खिड़की में बैठ जाते। रात को एक बजे रामलीला समाप्त होती और मैं उसे घर तक छोड़ने जाता। द्वार बंद करने से पहले हम एक-दूसरे को भारी मन से विदा करते। हम एक-दूसरे को चाहते हैं यह बात शायद उसके घर वालों भी मालूम हो गई थी। उसके परिवार वालों ने उसकी मेरे साथ शादी की बात भी चलाई। मेरी मां और बहन को भी वह बहुत पसंद थी। लेकिन मेरे पिता ने उस रिश्ते के लिए साफ इंकार कर दिया। चूंकि पिताजी मेरे रिश्ते के विषय में ज़िला मुजफ्फरगढ़ के पंडित राधूलाल (कृष्णा के पिता) से संभवत: बात कर चुके थे। अन्तत: मेरी सगाई कर दी गई। उधर उसकी भी शादी एक विधुर अध्यापक के साथ हो गई। हम दोनों प्रेमी असहाय रह गए। संयोग देखिए कि मेरी प्रेमिका का पति मेरा ही मित्र था। मेरे उस शास्त्री मित्र ने मुझसे ही मेरी प्रेमिका के बारे में पूछा कि वह कैसी लड़की है। मैं अपनी प्रेमिका की तारीफ करने के अलावा और क्या कहता उससे। मेरा दिन का चैन और रात की नींद हराम हो गई। मेरे हृदय की तड़प, टीस, कसक और विरह वेदना सहसा हिन्दी-उर्दू के विरह गीतों के माध्यम से फूट पड़ी। किन्तु इतने में ही मेरी विकल मन:स्थिति शान्त एवं नियंन्त्रित नहीं हुई। एक उन्मादी प्रेमी एक बेसुध व्यथित वियोगी बनकर मैं आकुल-व्याकुल रहने लगा। उधर उसने भी अपने घायल, भग्न और निराश मन के घोर अंधकार में मेरी याद के दीपक को सतत जलाए रखा और जीवन भर कभी बुझने नहीं दिया। उसे सदैव मुझसे शिकायत रही कि मैं तो क्रमश: प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के शिखर पर चढ़कर सुखपूर्वक बैठ गया, जबकि उस अभागिन की जीवन-नैया को बीच भंवर में छोड़ दिया। वास्तविकता यह है कि देश-विभाजन के बाद भी मैं उसे भूल न सका और किसी न किसी बहाने उससे संपर्क बनाए रखा। उसका ग़म गलत करने में मेरा कृष्णा से विवाह काफी हद तक सहायक सिद्ध हुआ। पत्नी के देह सुख ने काम-वासना का जो अद्भुत और अभूतपूर्व अनुभव मुझे दिया, वह न केवल मेरी तनावमुक्ति का सदा के लिए एक सुगम, सुलभ और अचूक उपाय बन गया, अपितु भविष्य में मेरे चारित्रिक पतन की हर सम्भावना में उसने रक्षा कवच का काम किया। अपने इस प्रेम का इजहार मैंने उन दिनों उर्दू में लिखी रुबाइयों में व्यक्त किया है जो ‘दर्द की बांसुरी’ नाम से हिन्दी में भी छपी है। प्रेम का दूसरा प्रसंग दिल्ली का है। यह लड़की मुझसे शास्त्री पढ़ती थी। बहुत ही शालीन और खुद्दार लड़की थी। बाद में उसने मेरे साथ काम भी किया। हम दोनों का प्रेम बहुत ही प्रगाढ़ था। वह पूरी तरह समर्पित थी मुझ पर।...मैं तब यकायक दिल्ली से हिसार आ गया था प्राध्यापक बनकर। उससे सम्पर्क निरन्तर हिसार आने के बाद भी बना रहा। लेकिन शादी का संयोग नहीं बना। इधर मेरी शादी हुई और उधर उसकी भी शादी हो गई। शादी के बाद से आज तक हम दोनों आज भी अच्छे दोस्त हैं।...वह एक सम्भ्रान्त, सुसंस्कृत, सुशिक्षित नवयुवती थी। उससे विवाह का तो कभी प्रश्न ही नहीं उठा। अत: जीवनभर हम नदी के किनारे बने रहे। एक-दूसरे से दूर भी पास भी। वह प्रेम सरोवर बड़ा ही विलक्षण था, उसमें स्नान कर मेरे तन-मन-प्राण सब भीग गए। मैंने उस दिव्य प्रेम माधुरी का रसामृत जीभर पीया और फिर भी प्यासा रहा। आज भी प्यासा हूं। अपने उस समय की प्रेमानुभूतियों को मैंने अनेक गीतों में व्यक्त किया है। वह कविता संग्रह ‘प्रीत लड़ा बैठा’ नाम से छपा है।
प्रश्न--आपको प्रेम-पत्र लिखने का भी तो अनुभव होगा?
उत्तर--मैंने प्रेम-पत्र कभी नहीं लिखे। लेकिन पाए बहुत। मेरी पहली प्रेमिका बहुत ही अच्छे प्रेम-पत्र लिखती थी। मेरे ज़वाब न देने का कारण यह रहा कि वह मुझे प्रेम-पत्रों का जवाब लिखने से मना करती थी। चूंकि वे पत्र उसके घर पहुंचेंगे और बात खुल जाएगी। मैंने अपनी दूसरी प्रेमिका को भी प्रेम-पत्र नहीं लिखे। हालांकि उसने मुझे बहुत ही कम पत्र लिखे। चूंकि रोज ही हम मिलते थे।...मैंने अपनी पत्नी को भी कभी प्रेम-पत्र नहीं लिखा चूंकि पत्नी वियोग मुझे कभी हुआ ही नहीं।
प्रश्न--शादी के बाद भी प्रेमिका से सपंर्क रखना पाप/अनैतिकता नहीं?
उत्तर--मेरी दृष्टि में सच्चा हार्दिक प्रेम पाप नहीं है। प्रेम तो सात्विक सनातन सत्य है। मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। ईश्वरीय वरदान है। उसे तथाकथित सामाजिक मर्यादा तथा थोथे एवं परिवर्तनशील नैतिक मूल्यों का मिथ्या आधार लेकर अभिशाप सिद्ध करने का प्रयास सर्वथा अनुचित है। मेरा प्रथम प्रेम नितान्त मानसिक, आत्मिक तल पर विशुद्ध सात्विक, स्वच्छ, अशरीरी और वायवी प्रकार का रहा, हल्का-फुल्का, सरल, सहज, सौम्य उदात्त। दो अबोध किशोर हृदयों का पवित्र गंगा-यमुनी संगम। दूसरा प्रेम युवावस्था का परिपक्व, प्रगाढ़, प्रबुद्ध, प्राकृतिक एवं पूर्ण था। उसमें गुलाब के फूलों का सौन्दर्य एवं सुगन्ध थी। नंदन वन के पारिजात का पराग था। उसमें सतरंगे इन्द्रधनुष के रंग थे, तितली के पंखों की फुलवारी थी, वसन्त ऋतु की मादकता और पहाड़ी झरने का मधुर संगीत था, कविता का रस भरा था।
प्रश्न--आपका विवाह कब और किससे हुआ?
उत्तर--मेरा विवाह कृष्णा देवी के साथ 30 जनवरी 1948 को हुआ।...वह विभाजन का दौर था। रिफ्यूजी लोग अपनी उन बेटियों को जिनके संबंध तय हो चुके थे, उनके बारे में अपने संबंधियों से आग्रह करते थे कि वे अपनी अमानत ले जाएं। बड़ी सादगी के साथ उन दिनों बेटियों की बिदाई होती थी। मेरे विवाह में भी तीन रिक्शों में परिवार की महिलाएं और एक तांगे में मैं और अन्य लोग सौ कदम पर ही स्थित विवाह मंडप तक बैठकर गए थे। और चंद घंटों के बाद ही दुल्हन को बिदा कराकर लेकर आए थे। विवाह का कर्मकाण्ड पिताजी ने कराया था। वर के मंत्र मैंने पढ़े थे। उस समय न कोई बैंडबाजा बजा न घुड़चढ़ी हुई।
प्रश्न--कहते हैं प्रत्येक पुरुष के साहित्यिक व्यक्तित्व के निर्माण के पीछे नारी का महत्वपूर्ण भूमिका होती है? आपके व्यक्तित्व के निर्माण के पीछे कौन नारी है?
उत्तर--निश्चय ही इस बात में सच्चाई जान पड़ती है। मेरे काव्य की मूल प्रेरणा नारी ही रही है। मेरी हिन्दी-उर्दू की अनेक रचनाएं इसकी साक्षी हैं। शुरू में प्रेम गीत और रुबाइयों के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से प्रेमिकाओं की ही प्रेरणा रही।...दूसरी ओर, मेरी पत्नी यदि घर-गृहस्थी के कामकाज से मुझे मुक्त न रखती तो कदाचित मैं अपना पर्याप्त समय साहित्य-साधना को न दे सकता था।
प्रश्न--आपके कितनी संतानें हैं?
उत्तर--चार। एक लड़का और तीन लड़कियां। सबकी शादी हो चुकी है। एक लड़की इस समय इंगलैंड में है और दूसरी कनाडा में। तीसरी बीच वाली लड़की यहीं यमुनानगर में ब्याही है। मैं अब दादा और नाना ही नहीं परनाना बन चुका हूं।
प्रश्न--आपका लड़का क्या करता है?
उत्तर--मेरे जीवन की सबसे बड़ी असफलता यही है कि मैं अपने इकलौते लड़के की अपनी इच्छा और आशा के अनुरूप उसके जीवन का निर्माण नहीं कर सका। वैसे वह बहुत ही जहीन और समझदार लड़का है। कार्यक्रमों का संचालन बड़ी खूबी के साथ करता है। लेकिन उससे वह अपने परिवार का पालन-पोषण तो नहीं कर सकता।
प्रश्न--जीवन की कोई अविस्मरणीय घटना बताएं?
उत्तर--एक बार इंगलैंड-अमेरिका की यात्रा में जब मैं मान्चेस्टर के कवि सम्मेलन में मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी और नीरज जैसे कवियों के होते हुए श्रोताओं में एक मुसलमान पाकिस्तानी शायर ने मेरी कविता से प्रसन्न होकर मुझे 100 पाउंड का उपहार दिया तो मैं विस्मय-विमुग्ध हो गया था। यह घटना मुझे कभी नहीं भूलती।
प्रश्न--आप युवा लेखकों-कवियों को क्या टिप्स देना चाहेंगे?
उत्तर--मैं लेखकों-कवियों को चार श्रेणियों में बांटता हूं। उदीयमान, नवोदित, स्थापित, स्थापित, प्रतिष्ठित। उदीयमान तथा नवोदितों लेखक साहित्य सृजन को कठिन साधना समझें। श्रेष्ठ साहित्य की रचनाओं को पढ़ने और जिज्ञासु बनकर वरिष्ठ कवियों-लेखकों से कुछ सीखने समझने की आदत डालें। भाव और भाषा को बार-बार तराशते रहें। एक बार लिखकर ही संतुष्ट न हो जाएं। क्योंकि--
सुगन्ध जिसमें न हो, वह सुमन नहीं होता,
सुरा का घूंट कभी आचमन नहीं होता।
प्रसव की पीढ़ा जरूरी है एक मां के लिए,
बिना तपस्या के लेखन ‘सृजन’ नहीं होता।
शीघ्र प्रकाशन और सस्ते प्रचार का मोह छोड़ दें। पुरस्कार पाने के लिए साहित्य-रचना आत्म-प्रवंचना होगी। पुरस्कार वितरित नहीं, अर्जित किए जाते हैं। उनके लिए सिफारिश, जोड़-तोड़ का प्रयत्न करना अनैतिक है। रचनाधर्मी साहित्कार गुटबंदी, दूसरों के दोष-दर्शन की प्रवृत्ति, निन्दा, विरोध तथा पुरस्कारों के चक्कर में हिस्सा न लेकर अपनी गरिमा को बनाए रखें। आपमें प्रतिभा है तो एक दिन वह प्रकट होगी ही।
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