Saturday, 31 March 2012

सेलुलर जेल


सेलुलर जेल !
तुम इसलिए राष्ट्रीय स्मारक हो
कि नई पीढ़ी जान सके
तुम्हारी साढ़े चार मीटर लंबी और तीन मीटर चौड़ी
दड़बेनुमा 698 कोठरियों की दीवारों में
आज़ादी के अनेक दीवानों ने
किस तरह बिताई यातनामय ज़िन्दगी
अंडमान निकोबार की धरती का जल ‘काला पानी’ क्यों कहलाया?
उन्हें मिल सके इस सवाल का जवाब।

सेलुलर जेल!
तुम्हें इसलिए सुरक्षित रखा गया है
कि बीते कल के इतिहास से सनी तुम्हारी दीवारों में
प्रांगण और कोठरियों के धरातल पर
गुलामी के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजाने वालों के जज़्बे
और घुटन की गंध को सूंघा जा सके
दफ़्न हो गए स्वतंत्रता सेनानियों के
हवा में खो गए सपनों को महसूस किया जा सके।

सेलुलर जेल!
तुम हमारे लिए इसलिए राष्ट्रीय धरोहर हो
कि तुम्हारे भवन की योजना को देख-पढ़ कर
हम अंग्रेज़ों की कुत्सित मानसिकता
उनके घिनौने शासन-तंत्र
और देश के गद्दारों की फेहरिस्त को पढ़ सकें।

Friday, 30 March 2012

ज़िन्दगी और उसके फ़लसफ़े


कल अचानक आंधियों के गांव में जाना हुआ
दीप हर घर में जला देखा तो मैं हैरां हुआ
नहीं था आंधियों के घर हवा का वेग
रसरंगमय वातावरण सुरभित
निर्द्वंद्व थी हर दीप की बाती
उल्लास था--
गांव के हर द्वार आंगन में
अठखेलियों में मगन था बचपन
हर चेहरे पर दमकता था दरपन
लाड़-प्यार और विनोद-चुहल की चहक थी
यौवन की गुनगुन और रुनझुन की महक थी
हतप्रभ खड़ा मैं सोचने लगा--
क्यों नहीं दिखता यहां जीवन का संघर्ष
खीज, बौखलाहट और समय से दुर्घर्ष
पसीने की चिपचिपाहट
देह की थकन
भूख की बिलबिलाहट
पेट की जलन
पैरों की बिंवाई, हाथों की ठेक
देह की खुरसट में लहू की रेख
होंठों की पपड़ी पर तड़पती प्यास
डूबती आंखों में जीवन की आस
लू की जलन में छाया का सुख
टप-टप छत और अभावों का दुख
भूख से व्याकुल ममता का त्याग
चीख और चिल्लाहट, आंसुओं का राग।

तभी एक महात्मा ने
कंधे पर हाथ रखकर पूछा :
वत्स, क्या देखते हो?
क्यों हो दुखी और क्या सोचते हो?
मैंने कहा, महात्मन!
आहत हूं, समाज के वर्ग भेद से
छुआछूत, जातपांत, ऊंच-नीच से
एक ओर सुविधाओं का अंबार है
दूसरी ओर आंसुओं की भरमार है
मैं खड़ा-खड़ा
इस सम्पन्न समाज को निहार रहा हूं
वर्गभेद के कारण और निवारण पर विचार रहा हूं
मैं देख रहा हूं कमेरों और लुटेरों की दुनिया का फ़र्क
किस सफाई से रचा है यह स्वर्ग और नर्क
कमेरे मेहनत से करते हैं उत्पादन
बनिकों का गणित करता, उसका निष्पादन
कैसा यह व्याकरण, कैसा यह जादू
कमेरे की कुंडली में जम जाता राहू
कमेरा रह जाता है नंगे का नंगा
नहीं लेता बेचारा किसी से भी पंगा
उसकी तो थाती है केवल उच्छवास
कल होगा अपना--यह हौसला-विश्वास
सदियों से डगर यह चली आ रही है
नहीं लीक मिटती नज़र आ रही है
आप ही बताएं महात्मन
ये अन्याय क्यों है?
जो करे अन्न पैदा वही भूखा क्यों है?

महात्मा मुस्कराए धीरे से बोले--
शांत बेटे शांत!
मत करो मन को बिलकुल भी क्लांत
विधि का विधान सब
है कर्मों का लेखा
मत ना करो तुम तनिक भी परेखा
सुनो मैं कहानी सुनाता हूं तुमको
गुन सको तो गुनना, बताता हूं तुमको
थे दो गरीब किस्मत के मारे
दर-दर भटकते थे दोनों बेचारे
न मिली चाकरी न मिला कोई धंधा
उन्हें घूरता शक से हर कोई बंदा
सोना भी हो जाता था उनके हाथों में मिट्टी
किस्मत की उनसे ऐसी थी कुट्टी
जर्जर वसन चाम उनके थे सूखे
अधपेट बेचारे रहते थे भूखे
जूते न चप्पल सदा पैर नंगे
दुतकारे जाते थे वे भीखमंगे
उनमें से एक ने
एक दिन बिचारा
कर्म से यह जीवन
क्यों न जाए सुधारा!
लिखी अपने हिस्से में जो तन पर लंगोटी
नहीं भाग्य में है जो भरपेट रोटी
कंटकों पर ही चलना है जब किस्मत में अपने
तो देखें ही क्यों हम असंभव से सपने
सुलभ जो भी हो जाए प्रभु की कृपा से
उसे हर्ष से हम
लगावेंगे माथे।

उस रंक ने यूं मनन करके गहरा
कहा सब जनों से--हटा धुंध गहरा
क्षमा से बड़ा सुख न दुनिया में कोई
क्षमा ही दिलाए, चित्त की शांति खोई
दया कीजिए निर्बलों, निर्धनों पर
दया कीजिए मूक जीव-जन्तुओं पर
क्रोध करके कलुष अपने मन को न कीजे
क्रोध के ताप में होम शांति न कीजे
लालच बुरी है बला मेरे भाई
पापों की गठरी है इसमें समाई
व्यापार का सिर्फ यह फलसफा हो
आटे में नमक की तरह बस नफा हो
कमाई का एक हिस्सा करो दान भाई
पुण्य से ही होगी खुद की भलाई
भूखा न लौटे, कोई द्वारे पर आकर
गिरे को उठाओ ममता दिखाकर
पीर दूजे की हरने में जो मन लगाए
संत और महात्मा वह शख्स कहाए।

बेटे!
लोगों को भा गई उस रंक की हर बात
जो रहता था मगन ईश-भक्ति के साथ
मुनी का दिया दर्जा लोगों ने उसको
जो कल तक था व्याकुल, तृष्णा थी जिसको
कर्म से उस रंक ने अपनी दुनिया संवारी
गुमनाम था जो हुआ अब हजारी
इशारे पर उसके धन-धान्य बटते
कदमों में मुद्राओं के अंबार लगते
किन्तु भाग्य में था अधपेट रहना
बिन वसन नंगे पैरों ही चलना
वह सिलसिला तो तनिक भी न बदला
किन्तु कर्मों से उसने पद अपना बदला
भूख-प्यास को उसने नियमों में बांधा
पादुका बिन यात्रा से खुद को है साधा
कठिन साधना से कर सरल अपने मन को
शांति का संदेश दिया जन-जन को
उसको मिली जग में गुरु पद की सत्ता
दिनों दिन बढ़ी उसकी जग में महत्ता।

बेटे!
मिलेगा वही, जो लिखा भाग्य में है
इस कहानी से चाहो तो तुम खुद को मथ लो
कर्म से निज जीवन चाहो तो बदलो।

किन्तु सांसारिक ज्ञान है यह मुझसे कहता
क्यों व्यर्थ की भावनाओं में तू बहता
भय है घुसा हर आदमी के भीतर
भय ने ही गढ़ा है यह काल्पनिक ईश्वर
आदमी ने ही रचे हैं ये सामाजिक विधान
उसने ही ताने हैं ऊंच-नीच के वितान
प्रकृति की संपदा है सबके लिए
जिसका जीवन है जितना वो तब तक जिए
है शाश्वत विधान
कि ताकतवर ही करता है कमजोर का शिकार
कमजोर के वश में है बस चीख-पुकार
इसलिए ताकतवर बनो
दुनिया को ताकत से हनो।

फ़लसफ़े ज़िन्दगी के बिखरे पड़े हैं
सलमे-सितारे सभी में जड़े हैं
कोई  फ़लसफ़ा कहता--ताकत की दुनिया
कोई कहता--गुनिया की है सिर्फ दुनिया
प्रकृति का करिश्मा जताता है कोई
किस्मत का लिक्खा बताता है कोई
मगर मेरी बुद्धि में कुछ न समाए
किसे सत्य मानूं समझ में न आए।

Thursday, 29 March 2012

पुलिस


महाकवि तुलसीदास ने
रामचरित मानस की रचना से पहले
दुष्टों का स्मरण कर उनकी अभ्यर्थना की थी
कि वे अपनी दुष्टता की छाया से उन्हें बचाए रखें
मेरा भी मानना है इसी तरह हर सभ्य नागरिक को
सामाजिक जीवन में कदम रखते ही
पुलिस की अभ्यर्थना करनी चाहिए
कि वह उसके सम्मान को कोई ठेस न पहुंचाए
ईश्वर से प्राथना करनी चाहिए
कि वह पुलिस की छाया से भी उसे दूर रखे
विद्वानों का तर्क है :
बिना पुलिस समाज में कानून व्यवस्था चौपट हो जाएगी
लेकिन मेरे कड़वे तजुर्बे का तर्जुमा है :
पुलिस ही करती है कानून व्यवस्था को चौपट
सच मानिए, पुलिस के नाम से भूत भी भागते हैं
कानून और आदमी की तो बिसात ही क्या
पुलिस दिन को रात कर सकती है और रात को दिन
सूरज को चांद में बदल सकती है
और चांद को कर सकती है गायब।

जिस अपराधी ने पुलिस से सांठगांठ कर ली
समझो मौज हो गई उसकी जीवन में
वह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करता जाएगा
और शर्तों की उल्लंघना से बाहर जाते ही बेमौत मारा जाएगा
किन्तु कोई सभ्य नागरिक पुलिस से  दोस्ती कर लेता है
तो समझो वह अपने जीवन में नरक भर लेता है
चूंकि पुलिस की दोस्ती भी उतनी ही खराब है जितनी दुश्मनी
पुलिस ने आपकी देहरी के अंदर झांक लिया
तो समझो आपको आंक लिया
तब कलह आपकी जीवन संगिनी हो जाएगी
ज़िन्दगी, दुष्ट प्रेमी पुलिस की बंदिनी हो जाएगी।

पुलिस उस शह का नाम है
जिसके एक हाथ में है मात और दूसरे में मौत
शर्मदार तो पुलिस का साया पड़ते ही आधा मर जाता है
मेरा मानना है पुलिस ही बनाती है आदमी को
चोर, बदमाश, स्मगलर, डॉन, माफिया
इसीलिए कहता हूं
शरीफ आदमी को पुलिस से आंख नहीं मिलानी चाहिए
पुलिस से आंख मिलते ही
शरीफ आदमी शरीफ नहीं रहता
चौकी-थाने में उसकी डायरी खुल जाती है
कुल जाति लिख जाती है
और कुंडली में शनि की साढ़ेसाती शुरू हो जाती है
फिर परिवार की आय परिवार नहीं, पुलिस खाती है।

पुलिस रक्षक है :
उनके लिए जो अपनी रक्षा खुद करना जानते हैं
पुलिस भक्षक है :
उनके लिए जो अवैध धंधा करते हैं और नहीं देते पुलिस को हिस्सा
पुलिस तक्षक है :
उनके लिए जो न वैध धंधा करते हैं न अवैध पर चाहते हैं सुरक्षा
कोई पुलिस वाला न सुन ले
इसलिए इस पुलिस कथा को अब यहीं विश्राम देते हैं
और प्रस्थान लेते हैं
नमस्कार!


Wednesday, 28 March 2012

राष्ट्र को राष्ट्रभाषा का ताज पहनाओ


मेरे राजनीतिक भाई!
तुमने हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी को कहां धकेल दिया
क्यों नहीं उसको उसका सही स्थान दिया?
स्वाधीनता के संघर्ष में
गंगा-जमुनी हिन्दी ही बनी थी देश की संपर्क भाषा
पूरे देश ने हिन्दी को अपनाया था
हिन्दी के नेतृत्व ने
वंदेमातरम्!
इंकलाब ज़िदाबाद!
अंग्रेज़ो भारत छोड़ो! का अलख जगाया था
सामूहिक आंदोलन चले थे पूरे देश में
हम मिलकर गरजे-गरियाए थे अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ
हमारी एकता रंग लाई
गुलामी से मुक्ति मिली
तिरंगा फहराया
लोकतंत्र कायम हुआ देश में
तुम और तुम्हारे साथियों ने राजकाज संभाला
उम्मीद जगी थी कि हिदीमय हो जाएगा देश
किन्तु कुछ नहीं बदला
हमने अनेक बार किए प्रदर्शन
तब तुमने हिन्दी को राजभाषा घोषित किया
किन्तु संविधान में
अंग्रेज़ी को धीरे-धीरे हटाने का नुक्ता जोड़ दिया
राजकाज में नहीं उतारी तुमने हिन्दी
तुम सत्ता के मद में खो गए
भूल गए कि हिन्दी को विज्ञान से है जोड़ना
न्याय की प्रक्रिया में है मोड़ना
रोज़ी-रोटी के साधनों में ढालना।

मेरे राजनीतिक भाई!
कभी तुम अपनों के बीच गर्व से कहा करते थे
हिन्दी भाषा पूर्णतया वैज्ञानिक है
इसमें जो लिखा जाए, वही बोला जाता है
कोई व्यतिक्रम या व्यायाघात नहीं होता गैर हिन्दी भाषी को
इस भाषा को कबीर और तुलसी ने निखारा है
बिहारी और देव ने संवारा है
सूरदास ने वाणी दी है इसके ममत्व को
रसखान ने जाना है इसके महत्व को
मीरा ने बजाई है इसमें नटनागर की बांसुरी
जायसी ने हटाई है धुध आसुरी
महादेवी ने भरे हैं भाव इसमें नरम मोम से
निराला ने मिलाया है इसे व्योम से
भारतेन्दु ने सरजी है इसे नई सर्जना
दिनकर ने दी है इसे हुकार-गर्जना
इसमें पीर पर्वत-सी लिखी दुष्यंत ने
प्रकृति का प्रेम भर दिया इसमें पंत ने
किन्तु तुम्हारी कथनी और करनी में अंतर रहा।

मेरे राजनीतिक भाई!
तुमने नहीं दिया हिन्दी को उसका सम्मान
हिन्दी अपने ही घर में हो गई है मोहताज
आज अंग्रेज़ी में ही हैं रोजगार के मुख्य साधन
अंग्रेज़ी में ही होता है राजकाज
अंग्रेज़ी में हो रहे हैं अदालत के फैसले
बेगानापन लिए भौचक है आमजन
जाग जाओ भाई
राष्ट्र को राष्ट्र की भाषा का ताज  पहनाओ
हिन्दी भाषा को अपनाओ।


Monday, 26 March 2012

मेरे अन्दर का जानवर


मेरे अन्दर के जानवर ने
अनेक बार मुझे नीचा दिखाया है
जब से मैंने होश संभाला है
मेरा इससे युद्ध जारी है
ज्यादातर यही हावी रहा है मुझ पर
मैं हल्का रहा हूं
पर मैंने हिम्मत नहीं हारी है
ज़िदा है मेरा अहसास
कि मैं इंसान हूं।

मेरे अन्दर का जानवर
वहशी है और डरपोक भी
अपनी शैतानियत ये ललचाता और फंसाता रहा है मुझे
हंगामा बरपा है जब भी कभी मुझ पर
यह दुम दबाकर भाग  गया है वहां से
मैं प्रगति की सीढ़ियों के नीचे गिरा हूं
हर बार इसने मुझ पर व्यंग्य किया है कि मैं सिरफिरा हूं
मैंने पकड़ ली है इसकी कमजोरी
यह किताब से डरता है
जब-जब किताब होती है मेरे हाथ में
यह से व्यंग्य करता है
गिर-गिर कर संभालता आया हूं मैं अपने को
उम्मीद है अब नहीं गिरूंगा
जब तक अपने अंन्दर के जानवर को नहीं मार दूंगा
मैं नहीं मरूंगा
अब मेरे चारों ओर किताबें हैं
मैं किताबों के अध्ययन में डूबा हूं
मेर हाथ में भी है किताब
खत्म होने वाला है अब मेरे दुश्मन का हिसाब
मेरा अन्दर का जानवर अब लुंज-पुंज हो गया है
धीमी-धीमी सांसें चल रही हैं उसकी।

Saturday, 24 March 2012

आज़ादी की हीरक जयंती का जश्न


साठ वर्ष के हो गए हैं आज़ादी और लोकतंत्र!

आज़ादी के पांव में पुर गए हैं बेड़ियों के घाव
हसरतें रह गई हैं अधूरी
उसे मलाल है
क्यों नहीं बरजा उसने तब पहरुओं को
जो सत्ता के दरवाज़े
दुकानों की तरह सजा कर बैठ गए
और धीरे-धीरे सत्ता को बाज़ार में बदल गए
फिर उन्हें अपने ही उत्तराधिकारियों को सौंप गए
देख रही है आज़ादी
सत्ता हो गई है शापिंग माल के मानिंद।

उधर लोकतंत्र मना रहा है आज़ादी की हीरक जयंती
शाही आनबान में गढ़ लिए हैं उसने
सत्ता के कुछ नए मंत्र
आज़ादी का आंदोलन और उसकी कुर्बानियां
लोकतंत्र के लिए हैं सिर्फ किस्से कहानियां
उसे तो होते ही मिला सत्ता का गुलदस्ता
उसका कहना है
कम साधनों में किया उसने संघर्ष
पाया उत्कर्ष
आज उसकी झोली में है उजास ही उजास
यह उसकी अपनी कमाई है
मानसिक व्यायाम से ही मिले हैं उसे सत्ता के नए आयाम
देश की विकास दर छू रही है आकाश
अंधेरा मत देखिए--देखिए सिर्फ प्रकाश
खुशी के माहौल में मुफलिसी का गीत मत गाइए
जश्न का मौसम है जश्न मनाइए।

Friday, 23 March 2012

आरक्षण का दैत्य


समाज कल्याण के नाम पर राजनीति ने
आरक्षण नहीं, शिगूफे बांटे हैं
यह आरक्षण ए वर्ग/वह आरक्षण बी वर्ग
इधर अल्पसंख्यकों का आरक्षण/उधर मुफलिसों का आरक्षण
आरक्षण की मरीचिका से मोहित
अब तो फले-फूले समाज से भी
उठने लगी है आरक्षण की मांग
जाट मांगते हैं आरक्षण
मुस्लिम मांगते हैं आरक्षण
यादव मांगते हैं आरक्षण
राजपूत मांगते हैं आरक्षण
पंडित मांगते हैं आरक्षण
बिखर रहा है समाज
झिंझोड़ रहा है यह यक्ष प्रश्न
क्या होगा इस आरक्षण के दैत्य का?
राजनीति खत्म करेगी इस दैत्य को
या भस्मासुर की तरह खुद ही भस्म हो जाएगा यह!

Thursday, 22 March 2012

एक मृत नागरिक की रूह की चिट्ठी


मैं राम भरोसे वल्द गुलामचंद की मृतात्मा
चाहती हूं कि आजाद भारत की सर्वोच्च अदालत
मेरी इस चिट्ठी को याचिका माने
वह जाने कि आजादी मिलने के बाद सत्ता की बंदरबांट
आम नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का हनन
शिक्षा में विसंगति
राष्ट्रभाषा हिन्दी का अपमान
मुटठी-भर धनाढ्यों के हाथों में दौलत का सिमटना
और विकसित यांत्रिक युग में भी गरीब की गरीबी का न मिटना
क्योंकर और किसकी शह पर हुआ?
उन दोषियों को पहचाने
अदालत इस पर भी विचारे
कि न्याय क्यों बहुत महंगा और लंबा है?
सर्वोच्च अदालत में पढ़ तो ली जाएगी न
मेरे पत्र की भाषा और लिखाई
या हिन्दी भाषा से वहां भी चल रही है रुसवाई?

Wednesday, 21 March 2012

कली का जीवनचक्र


कली चटकी
खिली/खिलखिलाई
पुष्प बनी
हंसी/मुस्कराई
महमहाई
भंवरों से गुननगुनाई
शरमाई/हरषाई/मदमाई
मदनोत्सव मनाया/पराग लुटाया
उम्र पूरी कर मुरझाई
साख से झर गई
मिट गई।

कली के इस जीवन-चक्र में
उल्लास है
प्रेम है
समर्पण है
बैर और युद्ध कहीं नहीं है
मनुष्य के जीवन में युद्ध ही युद्ध हैं, क्यों?

Monday, 19 March 2012

हे गंधे! आओ फिर प्रेम करें


मैं आदम पुत्र
तुम्हारा ऋणी हूं अपराजिता
सुगंधित किए तुमने मेरे जीवन के अनगिन क्षण
मैं जब भी थका
तुमने मेरी थकन को फींच दिया
मन को दिए गए नए-नए आयाम
मेरे तेज की रश्मियों को
अपने अंतस में ठहराया/अपनाया
द्विगुणित कर जन्माया
और अब तुम
उसे ही पल्लवित करने में हो मगन
किन्तु मैं अब संतप्त हूं प्रिये!
तुम अब अपने सलोने अंशज में ही खोई रहती हो
मुझसे दूर रहती हो
हे गंधे!
आओ फिर प्रेम करें
स्मृतियों को पुनर्जीवित करें।

Saturday, 17 March 2012

तलाश एक संपादक की


दोस्तो!
मेरे देश में बेतहाशा भीड़ बढ़ गई है समाचारों की
गलियों, बाज़ारों, चौराहों पर
जहां ज़िंदगी को ढोया जाता है उन राहों पर
बेढब, अनगढ़ समाचार ही समाचार दिखाई देते हैं
समाचार--
चलते-फिरते, भागते-दौड़ते हुए
रोते-हंसते, खरीदते-बिकते हुए
लड़ते-झगड़ते, नारे लगाते हुए
चीखते-चिल्लाते, तोड़ते-फोड़ते हुए
नाचते-गाते, दलाली करते हुए
गद्दारी, खुद्दारी, दिलदारी में डूबे हुए।

दोस्तो!
समाचार बस समाचार होता है
संवर जाए तो खास होता है
असरदार होता है
वर्ना आम होता है
बेकाम और बेदाम होता है
मेरे देश को अर्से से
ज़रूरत है एक अच्छे संपादक की
जो हम भटकते समाचारों को संवारे-सुधारे
समय के अनुकूल निखारे।

दोस्तो!
आप भी तो इस भीड़ का हिस्सा हैं
आप भी तो बनना चाहते हैं सुगढ़ समाचार
तो आइए जुट जाइए मेरी ही तरह
एक सुयोग्य संपादक की तलाश में
जो हमारे देश के समाचारों को
संवारे, निखारे, सुधारे
और समय के अखबार में उपयुक्त महत्व दिलाए।

Friday, 16 March 2012

हुजूर!


हुजूर!
मेरी बात मान जाइएगा
अब आप सरकारी दौरे पर
मेरे शहर मत आइएगा
मझे क्षमा कर दें
मेरी मानें और अपना दौरा रद्द कर दें।

हुजूर!
मेरे शहर का मिजाज आजकल कुछ गर्म है
अन्यथा न लें
आपकी हिफाजत की सोचना मेरा धर्म है
न जाने आजकल मेरे शहर को क्या हो गया है?
यहां नई पीढ़ी का हर आदमी
पोस्टर बनकर दीवारों पर चस्पां हो गया है।

हुजूर!
पोस्टर का काम दूसरों को हड़काना होता है
सही शब्दों में कहें तो भड़काना होता है
यहां पोस्टर बना हर मौन चेहरा
खूंखार आंखों से जैसे दे रहा है शहर का पहरा
पोस्टर बने हर चेहरे की एक आंख में
ज्वालामुखी खौल रहा है
देखकर लगता है जैसे--
उड़ने से पहले बाज अपने पंख तौल रहा है
और दूसरी आंख में
हसरतों के महल बन रहे हैं
गुलशन खिल रहे हैं।

हुजूर!
ये बदला हुआ माहौल
कुछ सिरफिरों की ये बेजा हरकतें
बदशकूनी का इजहार करती हैं
कुछ गलत हो जाने का इशारा करती हैं
आपका आना शायद आपके हक में अच्छा न रहे
इसलिए, मेरी बात मान जाइएगा
अब आप सरकारी दौरे पर
मेरे शहर मत आइएगा।

Thursday, 15 March 2012

समाज और व्यक्ति का गणित


एक व्यक्ति की मृत्यु पर सहस्रों देह हो जाती हैं मृत्यु को प्राप्त
सहस्रों देहों को मिल जाता है नवजीवन
प्रकृति का है अपना अनूठा चलन
समाज का है अपना चलन।

व्यक्ति के व्यक्तित्व का अन्तर है समाज में
कभी एक व्यक्ति की मृत्यु पर होती है समाज में एक उपभोक्ता की मृत्यु
कभी एक व्यक्ति की मृत्यु पर बाजार में आ जाता है भूचाल
सहस्रों व्यक्ति हो जाते हैं मृत्यु को प्राप्त
या पहुंच जाते हैं मरणासन्न स्थिति में
सेंसेक्स हो जाता है धराशायी।

उधर देखो,
धुध में किसी वाहन से कुचल गया है कोई व्यक्ति
उसके शव को सड़क पर लीप दिया है अनेक वाहनों के टायरों ने
उसकी साइकिल, चप्पलें, टिफिन पहुंच जाएंगे अब कबाड़ी बाजार में
टिफिन का बिखरा खाना खा रहा है आवारा बछड़ा
चौकन्ने कोए बार-बार खुरच रहे हैं सड़क पर चिपके मांस को
पुलिस वाला उस व्यक्ति के लोथड़ों को करा रहा है सील
पोस्टमार्टम के लिए
अखबार के कोने में छपेगी उसकी छोटी-सी खबर
संभव है अज्ञात के रूप में।

और उधर देखो सड़क पार सामने
पीली कोठी पर मच रहा है रुदन
बाबूजी नहीं रहे!
बाबूजी जिनके गणित ने
मामूली कारोबार को पहुंचा दिया अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
छोटे-से संस्थान को बदल दिया औद्योगिक साम्राज्य में
जिन्होंने राजकाज संबंधी सभी अफसरों और कारिंदों को रखा खुश
सभी राजनीतिक दलों को दिल खोलकर दिया चंदा
जिन्होंने किसी भी राज के किसी भी ‘राज’ को
कभी भी नहीं लिया मुफ्त
दरियादिली की मिसाल थे बाबूजी
जब भी किसी नेता या अफसर ने की कोई फरमाइश
बात पूरी होने से पहले ही पूरी कर देते थे बाबूजी।

बाबूजी उठते थे हिन्दुस्तान में
सोते थे इंगलिस्तान में
हवाईयात्रा में ही सहस्रों लोगों के खून-पसीने, आंसू की धाराओं को
सोख लेते थे अपनी कलम से
कभी कोई पत्ता नहीं हिला बाबूजी के सामने
कभी कोई नहीं कर सका गिला बाबूजी के सामने।

बहुत उदार और धार्मिक थे बाबूजी
उनकी सेवा में जो भी रही बालाएं
उन्होंने उन सबकी दूर की बाधाएं
दान-दक्षिणा देना उनका था नित्य कर्म
बनवाईं उन्होंने दर्जनों गौशालाएं, धर्मशालाएं।

बहुत शहनशील थे बाबूजी
कोई क्या झेलेगा उनके जितनी बीमारियां
कोन-सा रोग नहीं था बाबूजी को
क्या कहें कौन-सी बीमारी मौत बन गई रात में उनके लिए
देर रात तक यात्रा में अपनों से की थी बाबूजी ने मंत्रणा
सोए थे हंसते हुए।

बाबूजी की आंख मुदते ही
सेंसेक्स धड़ाम से नीचे गिरा है बारह सौ अंक
आगे भी लगता है उसकी चाल लड़खड़ाएगी ही
हजारों लोग हो गए हैं कंगाल, मारे जाएंगे बेमौत।

अखबारों में पूरे-पूरे पेज बुक हो गए हैं उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए
मुख्य खबर भी अखबार की बाबूजी ही बनेंगे।

Wednesday, 14 March 2012

शिखर


शिखर पर जाने के लिए
सघन वनों से होकर गुजरना होता है
जाने वाला भटक जाता है
वापस नहीं आ पाता/हिंसक जीवों का हो जाता है  शिकार
आदि मानव ने
अपने अंशजों के कुछ छुटपुट प्रयासों के बारे में बताते हुए
शिखर पर जाने वाले पहले हठी युवक को समझाया
हठी युवक नहीं माना
प्रयत्न कर उसने पत्थरों को घिसा/नुकीला बनाया
और उन्हें लेकर चल दिया शिखर पर जाने के लिए।

शिखर पर जाने के लिए
दुर्गम जंगलों, नदी-नालों और समुद्रों से होकर गुजरना होता है
जाने वाला भटक जाता है
वापस नहीं आ पाता/विशालकाय हिंसक जानवरों
और जलचरों का हो जाता है शिकार
नदी-नालों में डूब जाता है
आदिवासियों के बुजुर्ग रहनुमा ने
नई पीढ़ी के हठी युवाओं को बार-बार समझाया
शिखर पर गए पिछले हठी युवाओं के असफल प्रयासों के बारे में बताया
किन्तु किसी हठी युवक ने बुजुर्ग की बात नहीं मानी
किसी ने प्रयत्न कर पेड़-पौधों की छाल से
तो किसी ने मरे हुए जीव-जन्तुओं की खाल से
रस्सियां बनाईं
हथियार के रूप में पेड़ की मजबूत शाखों को नुकीला किया
पिछले हठियों के अनुभवों को साथ लिया
और चले गये अलग-अलग दिशाओं में
शिखर पर जाने के लिए।

शिखर पर जाने के लिए
अंधी गुफाओं, खाइयों और गह्वरों से होकर गुजरना होता है
जाने वाले भटक जाते हैं
वापस नहीं आ पाते/अंधेरों में खो जाते हैं
विषैले जीव-जन्तुओं का हो जाते हैं शिकार
आदिवासी समूहों के मुखिया ने
शिखर पर जाने का हठ करने वाले युवाओं को समझाया
शिखर पर गए पिछले युवाओं के असफल प्रयासों के बारे में बताया
हठी युवकों में से किसी ने उसकी सीखों को नहीं माना
किसी ने प्रयत्न कर ढूंढ़ लिया चकमक पत्थर
किसी ने खोद-खोदकर तलाश लिया लोहा और बना लिए धारदार हथियार
और चले गए अलग-अलग दिशाओं में
पिछले हठियों के अनुभवों को साथ लेकर
शिखर पर जाने के लिए।

शिखर पर जाने के लिए
हिमाच्छादित वादियों से गुजरना होता है
जाने वाले भटक जाते हैं
लौटकर नहीं आ पाते/दब जाते हैं शिलाओं या हिमखंडों में
बन जाते हैं पत्थर या बर्फ
आदिवासी कबीले के सरदार ने
शिखर पर जाने की हठ करने वाले युवाओं को समझाया
कबीले के सहस्रों हठी युवाओं के असफल प्रयासों के बारे में बताया
किन्तु किसी हठी युवक ने सरदार की बातों पर ध्यान नहीं दिया
किसी ने प्रयत्न करके पशुओं की खालों को कवच-वस्त्रों में बदला
किसी ने धारदार हथियारों का रूप बदला
और पिछले हठियों के अनुभवों को अपने साथ रख
चले गए अलग-अलग दिशाओं में
शिखर पर जाने के लिए।

शिखर को पाने के लिए जिंदा रहना जरूरी है
जिंदा रहने के लिए जरूरी है
मौसम की मार से/जीव-जन्तुओं से
सुरक्षित रहना
सुरक्षित रहने के लिए जरूरी है घर
घर, जिसमें आपातकाल के लिए हो भोजन का भंडार
भडार, जिसके लिए जरूरी है उत्पादन
उत्पादन, जिसके लिए जरूरी है प्रकृति का संतुलित दोहन
प्रकृति के संतुलित दोहन के लिए जरूरी है सामूहिक अभियान
सामूहिक अभियान के लिए जरूरी है अस्त्र-शस्त्रों का संग्रह
अस्त्र-शस्त्रों के संग्रह के लिए जरूरी है यंत्र-तंत्र-मंत्र की साधना
(यंत्र यानी मशीन, तंत्र यानी योजना, मंत्र यानी विषय संबंधी ज्ञान)
इन तीनों की साधना के लिए जरूरी है समाज
समाज के लिए जरूरी है एकता
एकता के लिए जरूरी है विश्वास
विश्वास के लिए जरूरी है प्रेम
प्रेम के लिए जरूरी है त्याग और समर्पण
आदिवासी कबीले के मुखिया ने
शिखर पर जाने वाले हठी युवकों को समझाया
पहले गए सहस्रों हठी युवकों के असफल प्रयासों  के बारे में बताया
हठी युवकों को बात कुछ-कुछ जंची
किन्तु संशय के बादल भी घुमड़ते रहे उनके मस्तिष्क में
प्रधान मुखिया के सामने प्रश्न खड़ा किया हठी युवकों ने
तब श्रेय किसे मिलेगा शिखर पर जाने का?
मुखिया सरदार ने समझाया उन हठियों को
शिखर एक नहीं, अनगिनत हैं!
हर क्षेत्र में हैं शिखर
हर दिशा में हैं शिखर
शिखर के पीछे हैं शिखर
सभी शिखरों को छू नहीं सकता कोई भी एक
शिखर खत्म नहीं होते
और-और नए बनते जाते हैं शिखर
जिंदा रहेगी युवा शक्ति
जिंदा रहेगी उनमें त्याग, समर्पण और दृढ़ता की भावना
तो जगमगाएंगे घर और समाज
शिखर स्वयं चलकर आएंगे युवाओं के पास
हठी युवाओं ने मुखिया सरदार की बात मान ली
उस दिन से शिखर खुद चलकर आते हैं निश्चयी युवाओं के पास।

Monday, 12 March 2012

अपनों के सुगंध वाली चिट्ठियां अब नहीं आतीं


डाकिया रोज आता है मोहल्ले में
बांटता है डाक भी
किन्तु वे मिठियाती-गुदगुदाती
डबडबाती-सहराती
अपनों के संबोधन वाली चिट्ठियां अब नहीं आतीं।

जैसे चली गई हों स्थानांतरित होकर/तरक्की पर
लाता है डाकिया
तरह-तरह के बिल
अखबार-मैगजीन
शादियों के छपे हुए निमंत्रण-पत्र
बच्चों के परीक्षाफल और नौकरियों के काल लैटर
सरकारी नोटिस
पर हस्तलिखित अक्षरों की पहचान वाली
अपनों की सुगंध वाली चिट्ठियां अब नहीं आतीं।

Saturday, 10 March 2012

नहीं चाहिए मुझे तीव्र गति विनाश की


मेरी साइकिल मुझको ढोती है
जैसे हवा ढोती है बादलों को
कभी-कभी मैं भी ढोता हूं साइकिल को
जैसे मरीज को ढोते हैं परिजन
बद से बदतर हो राह भले
चिड़चिड़ाते-झींकते
हर हाल में साथ देती है मेरी साइकिल
जैसे हो अर्धांगिनी
मैं हारता नहीं हिम्मत मंजिल से
साइकिल जो मेरे साथ होती है
वह जिम है मेरे लिए
नित्य मुझे कसरत कराती है
चुस्त रखती है
आलस्य दूर भगाती है
प्रकृति से रूबरू कराती है
दुनिया के नजारे दिखाती है
जब भी मैंने की है उसकी उपेक्षा
उसने मुझे चुटैल कर समझाया है--
हमसफर जिसको बनाओ
अंत तक उसका साथ निभाओ
जमाना पल-पल रंग बदलता है
पर रंग अपना नहीं बदलती मेरी साइकिल
नहीं करती स्पर्धा वह किसी भी वाहन से
संतुष्ट है वह अपने-आपसे
कहती है धुरी हूं मैं विकास की
नहीं चाहिए मुझे तीव्र गति विनाश की।

Friday, 9 March 2012

मैं देख रहा हूं


लहलहा रहे हैं अनेक ज्ञान वृक्ष
बुद्धि-परीक्षा के नाके लगे हैं हर ज्ञान वृक्ष के नीचे
सजग बुद्धि वाले चेहरे नाका पार कर पहुंच रहे हैं सीढ़ियों से वृक्ष पर
उनकी पहुंच में हैं अब वृक्षों के फल
जिन्हें खाकर हो रहे हैं वे ज्ञानवान
जड़-मूढ़ बुद्धि वाले या लापरवाह चेहरे
ताक रहे हैं धरती, और शून्य आकाश को
बीन रहे हैं पत्तियां, सूखी टहनियां, अधखाए फल, बीज, गुठलियां
अनेक चेहरे होकर गंभीर
जुट गए हैं दूसरे कामों में
अनेक बना रहे हैं भूमि में क्यारियां और कर रहे हैं बिजाई
सींच रहे हैं फसल
अनेक लग गए हैं पथ बनाने में
अनेक वस्त्र बनाने में
अनेक भंडारण विधि और सुरक्षा के साधन में
अनेक गीत-संगीत के गायन/मेहनतकशों के उत्साह वर्धन में
अनेक चेहरे गुस्साए और तमतमाए हुए
लगे हैं खोदने ज्ञान-वृक्षों की जड़।

मैं देख रहा हूं
ज्ञान-वृक्षों के शिखरों पर अद्भुत है आलोक
दिख रहे हैं वहां से दूसरे सघन और विशाल ज्ञान-वृक्ष
आलोक मार्ग से पहुंच रहे हैं ज्ञानी अब विशाल वृक्षों तक
सभी वृक्षों के शिखर द्वार पर
बैठे हैं यक्ष
जो माप रहे हैं ज्ञान-ज्ञिज्ञासु आगतुकों को
कमतर को उतार रहे हैं भूमि पर
चयनितों को दे रहे हैं पंख
चयनित ‘पंखी’ उड़-फुदक रहे हैं विशाल वृक्षों की डाल-टहनियों पर
गुन रहे हैं वृक्षों की सघनता/विशालता/कटुता/मिठास को
तोल रहे हैं पंखों को
नाप रहे हैं आकाश को
बेध रहे हैं दिग-दिगन्त को
निश्चित अवधि के बाद
हर वृक्ष पर आती हैं कुछ ‘चिड़ियां’
जो परखती हैं हैं उन ‘पंखियों’ को
मापती हैं उनमें
उड़ान की क्षमता
दिग-दिगन्त की पहचान
हवा का दाव
शीत-ऊष्मा का प्रभाव
कटुता-मिठास
फिर उनके पंखों पर छाप देती है उनकी पहचान
और खोल कर वृक्षों का झरोखा
उतार देती हैं ‘पंखियों’ को जमीन पर।

मैं देख रहा हूं
उतर कर वे ऊर्जावान ‘पंखी’
और लौटे ज्ञानी
सुधार रहे हैं अपने-अपने घरों को
खेत-क्यार को
अपने बांधवों को
समाज को।

मैं देख रहा हूं
हर चेहरे में खुद को तलाश रहा हूं
हूं मैं भी कहीं इनमें ही
क्या हूं, क्या है मेरी पहचान?
यह मुझे नहीं मालूम।

Tuesday, 6 March 2012

औरत


(1)
औरत!
जननी है मनुष्य की
मनुष्यता की/सभ्यता की
उलझी है उसकी अपनी जिंदगी
किन्तु सुलझाती है वह मनुष्य की उलझी पहेलियों को
सहयात्री है वह पुरुष की
किन्तु पुरुष छोड़ देता है उसे अक्सर मझधार में
बीच राह में
वह प्रेम की पुजारिन है
उसके कंठ तक लबालब है प्रेम
किन्तु प्रेम में ही मिलता है उसे हमेशा धोखा
वह निश्छल है
पर छली जाती रही है सदियों से
अपने प्रेमी को बचाने के लिए
बनती रही है वह कवच
ढोती रही है आरोप
कुर्बानी देना सिर्फ औरत ही जानती है।
 (2)
औरत!
औरत का ही दूसरा नाम है ममता
ममत्व से भरा है उसका आंचल
दूध की धार
निर्झर दुलार
असीम प्यार
वात्सल्य की रिमझिम फुहार
लुटाती आ रही है वह युग-युगों से
अपनी संतान पर
वह डांटती-डपटती है इसलिए है अपने अंशों को
कि उन्हें अपने कंटकी राहों के कांटे न चुभें
कि वे कुपथ पर जाने का दुराग्रह छोड़ दें
किन्तु हठी नहीं है वह
मन को समझा लेती है
कि ठोकरें खाकर ही सीखता है मनुष्य
और हट जाती है संतान की राह से
झुकना सिर्फ औरत ही जानती है।
(3)
औरत!
जिसे न पुरुष प्रेमी ने समझा
न संतान ने
दो हिस्सों में बंटी रही उसकी जिंदगी
नदी की तरह दो कगारों के बीच
बहना ही रहा जिसका जीवन
इस कगार के कड़वे बोल सुनना
और चुप रह जाना
उस कगार के कड़वे बोल सुनना
और चुप रह जाना
दोनों कगारों के तल्ख बोलों से एक साथ टकराना
और चुप रह जाना
अपने अंतर में उतार लेती है वह क्रोध के भंवर
संतान और प्रेमी दोनों को दुलराती है
दुख में सुख की छाया देखकर वह काट लेती है जिंदगी
सहनशीलता ही औरत की थाती है
यह सहनशीलता ही उसे महान बनाती है।

Saturday, 3 March 2012

चिर प्यास बीज


मैं युग-युगों से शापित बेबस बीज
अभागा हूं, चिर अभागा
सालते हैं मुझे
भू पर लहकते शैशवों के कलरव
कचोटती हैं उनकी अठखेलियां
मैं भी चूमना चाहता हूं
लहलहाते-महमहाते
अपने अंशज शैशव को
अपने प्रतिबिम्ब को
देना चाहता हूं
संपत्ति अनुभव की
अपने उत्तराधिकारी को
किन्तु यह असंभव है
बिलकुल असंभव
चूंकि मेरे उत्तराधिकारी का जन्म
मेरी मृत्यु के बाद होगा
मैं अभागा हूं, चिर अभागा।

Friday, 2 March 2012

दुखांत दृश्य है पुरुष यहां अदृश्य है


सुबह स्कूल गई गांव की लड़की
दोपहर को औरत होकर घर लौटी है
वह पुलकित है अनुभव अबोध से
भयभीत है अपराध बोध से
उसकी झोली में हैं सपने उपहार के
द्वंद्व चल रहा है उसके मस्स्तिष्क में
कानों से टकरा रही हैं गूंज--गांव में हो रही मुनादी की
कि गर्भवती महिलाओं और बच्चों का स्वास्थ्य शिविर
लगेगा कल चौपाल में
शिविर में आएगी महिला एवं बाल रोग विशेषज्ञ।

एक ही दिन में औरत बन गई लड़की
मुनादी सुनकर विचलित हो गई है
उसे लग रहा है
जैसे उसकी दुनिया विभाजित हो गई है
डूबी है वह सोच में :
कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गई कोख में
उसके मस्तिष्क में गूज रहा  है स्वास्थ्य शिविर
आंखों में घुमड़ रहा है अंधकार का विविर
उसे तूफानों के मचलने का आभास हो रहा है
हवा में उसे महसूस होती है कड़वाहट
उसे चिन्ता सता रही है :
पारिवारिक रिश्तों के कसाई होने की
जगहंसाई होने की
उसका विश्वास डगमगा रहा है
चिन्ता में है लड़की...
लड़की में है औरत...
औरत में है कोख...
दुखान्त दृश्य है
पुरुष यहां अदृश्य है।