जिसे धारण कर आदमी हो जाता है संधानी
कहलाता है लायक
बन जाता है कमाऊ
पहुंच जाता है सितारा श्रेणी में
वह उच्च शिक्षा
‘अलफांसो’ आम हो गई है
जो आम तो है पर ‘खास’ के लिए।
देश के स्कूल-कालेज
दशहरी लंगड़ा, टपका, चौंसा आम आदि दर्जे के हैं
जहां से खरीदी गई शिक्षा की सनद
सफेदपोश चूहों में बदल देती है लोगों को
जो या तो दफ्तरों की फाइल कुतरते हैं
या सामाजिकता के वस्त्र
आम आदमी तो
टुकुर-टुकुर देखता है इन शिक्षा बागानों को
वह तो जब-तब
आंधी-झरे अधपके आम आमों की बारहखड़ी ही पढ़ पाता है
और सड़कछाप साक्षर बनकर रह जाता है।
इन शिक्षा बागानों की व्यवस्था
हर युग में रही है द्रोणाचार्यों के हाथों में
लक्ष्मीपुत्रों की ही रही है उन बागानों तक पहुंच
जब भी किसी एकलव्य ने
लुक-छिपकर चखा है विशेष आमों का स्वाद
उसे अपना अंगूठा काटकर देना पड़ा है
अपना अस्तित्व खोना पड़ा है।
यूं तो वर्तमान में
अनेक मिथक टूट रहे हैं आरक्षण व्यवस्था से
कुछ पिछड़ों को भी मिल रहे हैं
खास आम चखने के अवसर
किन्तु विडंबना यह है
खास आम चख पाने वाले वे पिछड़े भी
द्रोणाचार्यों में बदल रहे हैं या लक्ष्मी पुत्रों में
आम आदमी बस आंधी का ही करता है इंतजार।
आपके पास है इसका कोई तोड़
या यूं ही चलता रहेगा यह गंठजोड़?
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