Wednesday, 15 February 2012

तोड़ दो अपनी उदासी

उदास न बैठो बंधु,
मन की खिड़की खोलो
दूर क्षितिज में देखो--
खुशियां महक रही हैं
चहक रही हैं
इंतजार है उन्हें तुम्हारे आमंत्रण का
पौरुषी आवाहन का
आकुल हैं वे उजड़ा सदन सजाने को
गीत-बधाई गाने को।

याद रखो यह बंधु,
बाधाओं से जो निराश हो जाते हैं
जो हताश हो चिर उदास बन जाते हैं
उनके घर खुशियां नहीं
बोझिल गम आते हैं
और आकर पसर जाते हैं
उनका वजूद
दूसरों के लिए भी हो जाता है दुखदायी।

बंधु,
उदासी छील देती है हृदय की भावनाएं
मूंद देती है उम्मीद की हर झिरी
अंधेरा ही अंधेरा गहरा जाता है चहुंओर
अंध-विविर में करने लगते हैं बसेरा--
मनहूसियत के चमकादड़।

बंधु,
तोड़ दो अपनी उदासी
उतार फेंको अपनी निराशा/हताशा
जगाओ अपने पौरुष को
निराशा को चीरकर देखो
खुशियों वाली नई सुबह तुम्हारा इंतजार कर रही है।

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