Wednesday, 22 February 2012

मां


मां! हो न पाया मैं उऋण
और तुमने छोड़ दी यह मानवी दुनिया।

प्रस्थान की वेला में तुमसे मैं निमिषभर दूर था
सूचना मिलते ही क्षण में आ गया था पास
किन्तु तुमने नयनभर मुझको नहीं देखा
मूर्च्छा में लीन
कर रही थीं पार तुम दर्द का दरिया
सुबक रहा था मैं
पलंग के किनारे खड़ा अस्पताल में
लुटे-पिटे यात्री-सा
कंपकंपाई जब क्षणिक पलकें तुम्हारी
लगा था सुन लिया है लाड़ले का रुदन तुमने
किन्तु फिर तुम हो गई थीं यथास्थिर।

मां!
तुम तपस्यालीन-सी लेटीं
याद शायद कर रही थीं इष्ट को
या मनपटल पर चल रहे चलचित्र में
देख रही थीं तुम किसी अनिष्ट को
तुम्हारे कंपकंपाते होंठ
चिंतित कर रहे थे हम सभी को
लग रहा था तुम कोई राज गहरा
बतला रही हो अपनी बहू को
थी तुम्हारे पास अर्द्धांगिनी मेरी
और हतप्रभ-से खड़े थे सभी बच्चे
फट गई थीं तनाव से तुम्हारे मस्तिष्क की शिरा
मुझे लगा था--मैं अभिमन्यु हूं चक्रव्यूह से घिरा।

चेतना में पुन: लाने को तुम्हें
लगे थे कई गुनिया।
मां! हो न पाया मैं उऋण
और तुमने छोड़ दी यह मानवी दुनिया।

मां! तुम दुखी थीं मेरी गृहस्थी के लिए
सोचती थीं कैसे नैया पार होगी इस अभागे की
मैं जमाने के संग नहीं था दौड़ता
छलछंद की दुनिया में बिलकुल मूढ़ था
बेबाकी जब मुझको रास नहीं आई
तो मुफलिसी बन गई मेरी शैदाई
मेरी डगमगारती गृहस्थी की नाव देख
मां भीग जाती थीं तुम्हारी आंखों की कोर
चिंतित रहती थीं तुम
कब होगी ‘राजे’ की काली रात की उजली भोर।

मां! यह तुम्हारी दुआओं की ही असर है
झंझावातों से निकल आई है मेरी नैया
आ लगा हूं किनारे पर
तुमने सहेजकर रखा था जो जमीन का टुकड़ा
उस पर ही बना लिया है मैंने एक छोटा-सा आशियाना
बेटियों के कर दिए हैं हाथ पीले
बेटे भी हो गए हैं नौजवान सजीले
सब चैन अमन है
मां! तुझको शत बार नमन है।

नहीं पता जीवन की कपास का कौन है धुनिया
और इस झीनी चादर का कौन है बुनिया।
मां! हो न पाया मैं उऋण
और तुमने छोड़ दी यह मानवी दुनिया।

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