Wednesday, 29 February 2012

यात्री


ध्यान से देखो गुबरैले के अथक परिश्रम को
समझो चींटी की लगन को
महसूसो प्रवासी पक्षियों के हौसले को
तोलो मधुमक्खियों की तन्मयता को
और मापो बया की निपुणता को।

पढ़ो मन की डायरी को
सोचो कि कहां गई तुम्हारी शिशु वाली निश्छलता?
विचारो कि रिश्तों में गुणा-भाग क्यों आया?
निरखो कि तुम जहां से चले थे, वहां भी मौजूद क्यों नहीं हो?
जानो कि मां की आंखों में आजन्म क्यों रहती है ममता?

छांव सदा ही नहीं रहती
जुड़ी है वह धूप से
यात्री के पांव के नीचे बदलती रहती है जमीन
रोपे गए पौधे महकते और फलते हैं बाद में भी।

रह जाएगी सिर्फ राख में दबी आग


फिर जरूरत ही नहीं पड़ेगी किसी को किसी से युद्ध करने की
धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा जिन्दगी जीने का विचार
आग ही आग रह जाएगी पृथ्वी के आंचल में
आग में दहकती आग
राख में चहकती आग
समुद्र में उबलती आग
हवाओं में मचलती आग
आकाश से बरसती आग
ऊपर-नीचे चारों ओर होगी आग ही आग
सबकुछ जल जाएगा आग में
सबकुछ मिट जाएगा आग से
न राष्ट्राध्यक्ष बचेगा कोई
न नागरिक
न होगी जिन्दगी
न होगी बन्दगी।

खूब-खूब रोएगा आकाश सूनी पृथ्वी को देखकर
फट-फट जाएगी पृथ्वी की छाती
डबडबाई हवा भटकेगी हरियाली के लिए
जल-जीव विहीन समुद्र हहराएगा बतरस के लिए
हर ओर हागा श्मशान-सा सन्नाटा
जिन्दगी कहीं नहीं होगी।

दौड़ रही हैं इसी भयावहता की ओर
दुनिया की तानाशाह और जिद्दी सरकारें
दांव पर लगी हैं असंख्यों-असंख्य जिन्दगियां और उनके गीत
जल्दी ही किसी बांसुरी से नहीं निकली कोई मधुर धुन
दृष्टि और शब्दों में नहीं घुली मिठास
आग और धुएं की यदि नहीं रुकी अंधी दौड़
तो!
आतिशबाजी में जल जाएंगे सबके सब आतिशबाज
उनके सपनों के साथ जल जाएगा उनका गुरूर भी
रह जाएगी सिर्फ राख में दबी आग।

Tuesday, 28 February 2012

उत्सवी हम


उत्सवों में हम वह नहीं होते
जो होते हैं
तब हम कुछ और होने के लिए
कुछ और होते हैं।

हम दिखने को द्विगुणित
फैलाते हैं अपना गणित
हरने को जीवन की तीक्ष्णता/रिक्तता
भरने को सपनों में रंग
तलाशते हैं हम
हर काम-काज में उत्सव के क्षण
हम उत्सवी
उत्सवों में ही छले जाते हैं
और उत्सवों में ही किसी को छलते हैं।

Monday, 27 February 2012

कहीं कुछ जल रहा है!


जनाब!
हवा की गंध कहती है
कहीं कुछ जल रहा है!
पल-पल बदलते आपके तेवर बताते हैं
आपको कुछ खल रहा है।

अंतरिक्ष ने परोस दिए हैं शिगूफे
हांफने लगा है शेयर बाजार
तोल रहे हैं अपने डैने
अट्टालिकाओं में धंसे गिद्ध
जाहिर है कुछ अजूबा चल रहा है
मुझे तो लगता है
कोई नया मरघट ढल रहा है।

जनाब!
आंदोलनरत है सड़कों पर
गुस्साए लोगों की भीड़
चिल्ला रही है--शेम! शेम! शेम!
बाज आओ अंकल सेम!
ये साम्राज्यवादी दादागिरी नहीं चलेगी!
कुछ तो बताइए जनाब!
यह क्या चल रहा है?
आपके राजधर्म में क्या उबल रहा है?
कुछ समझ नहीं आता
अपना देश स्वतंत्र है या ओढ़े हुए है स्वतंत्रता का चेहरा!
क्यों बना हुआ है यह साम्राज्यवादियों का मोहरा
कौन किस पर दांव चल रहा है?

जनाब!
मैं तो दूसरों को डराने के लिए
आपका ही खड़ा किया हुआ, बेजान बिजूका हूं
मुझसे न डरें, सच बताएं--
आपके मन में क्या मचल रहा है?

Saturday, 25 February 2012

उच्च शिक्षा के बागान


जिसे धारण कर आदमी हो जाता है संधानी
कहलाता है लायक
बन जाता है कमाऊ
पहुंच  जाता है सितारा श्रेणी में
वह उच्च शिक्षा
‘अलफांसो’ आम हो गई है
जो आम तो है पर ‘खास’ के लिए।

देश के स्कूल-कालेज
दशहरी लंगड़ा, टपका, चौंसा आम आदि दर्जे के हैं
जहां से खरीदी गई शिक्षा की सनद
सफेदपोश चूहों में बदल देती है लोगों को
जो या तो दफ्तरों की फाइल कुतरते हैं
 या सामाजिकता के वस्त्र
आम आदमी तो
टुकुर-टुकुर देखता है इन शिक्षा बागानों को
वह तो जब-तब
आंधी-झरे अधपके आम आमों की बारहखड़ी ही पढ़ पाता है
और सड़कछाप साक्षर बनकर रह जाता है।

इन शिक्षा बागानों की व्यवस्था
हर युग में रही है द्रोणाचार्यों के हाथों में
लक्ष्मीपुत्रों की ही रही है उन बागानों तक पहुंच
जब भी किसी एकलव्य ने
लुक-छिपकर चखा है विशेष आमों का स्वाद
उसे अपना अंगूठा काटकर देना पड़ा है
अपना अस्तित्व खोना पड़ा है।

यूं तो वर्तमान में
अनेक मिथक टूट रहे हैं आरक्षण व्यवस्था से
कुछ पिछड़ों को भी मिल रहे हैं
खास आम चखने के अवसर
किन्तु विडंबना यह है
खास आम चख पाने वाले वे पिछड़े भी
द्रोणाचार्यों में बदल रहे हैं या लक्ष्मी पुत्रों में
आम आदमी बस आंधी का ही करता है इंतजार।

आपके पास है इसका कोई तोड़
या यूं ही चलता रहेगा यह गंठजोड़?

Wednesday, 22 February 2012

मां


मां! हो न पाया मैं उऋण
और तुमने छोड़ दी यह मानवी दुनिया।

प्रस्थान की वेला में तुमसे मैं निमिषभर दूर था
सूचना मिलते ही क्षण में आ गया था पास
किन्तु तुमने नयनभर मुझको नहीं देखा
मूर्च्छा में लीन
कर रही थीं पार तुम दर्द का दरिया
सुबक रहा था मैं
पलंग के किनारे खड़ा अस्पताल में
लुटे-पिटे यात्री-सा
कंपकंपाई जब क्षणिक पलकें तुम्हारी
लगा था सुन लिया है लाड़ले का रुदन तुमने
किन्तु फिर तुम हो गई थीं यथास्थिर।

मां!
तुम तपस्यालीन-सी लेटीं
याद शायद कर रही थीं इष्ट को
या मनपटल पर चल रहे चलचित्र में
देख रही थीं तुम किसी अनिष्ट को
तुम्हारे कंपकंपाते होंठ
चिंतित कर रहे थे हम सभी को
लग रहा था तुम कोई राज गहरा
बतला रही हो अपनी बहू को
थी तुम्हारे पास अर्द्धांगिनी मेरी
और हतप्रभ-से खड़े थे सभी बच्चे
फट गई थीं तनाव से तुम्हारे मस्तिष्क की शिरा
मुझे लगा था--मैं अभिमन्यु हूं चक्रव्यूह से घिरा।

चेतना में पुन: लाने को तुम्हें
लगे थे कई गुनिया।
मां! हो न पाया मैं उऋण
और तुमने छोड़ दी यह मानवी दुनिया।

मां! तुम दुखी थीं मेरी गृहस्थी के लिए
सोचती थीं कैसे नैया पार होगी इस अभागे की
मैं जमाने के संग नहीं था दौड़ता
छलछंद की दुनिया में बिलकुल मूढ़ था
बेबाकी जब मुझको रास नहीं आई
तो मुफलिसी बन गई मेरी शैदाई
मेरी डगमगारती गृहस्थी की नाव देख
मां भीग जाती थीं तुम्हारी आंखों की कोर
चिंतित रहती थीं तुम
कब होगी ‘राजे’ की काली रात की उजली भोर।

मां! यह तुम्हारी दुआओं की ही असर है
झंझावातों से निकल आई है मेरी नैया
आ लगा हूं किनारे पर
तुमने सहेजकर रखा था जो जमीन का टुकड़ा
उस पर ही बना लिया है मैंने एक छोटा-सा आशियाना
बेटियों के कर दिए हैं हाथ पीले
बेटे भी हो गए हैं नौजवान सजीले
सब चैन अमन है
मां! तुझको शत बार नमन है।

नहीं पता जीवन की कपास का कौन है धुनिया
और इस झीनी चादर का कौन है बुनिया।
मां! हो न पाया मैं उऋण
और तुमने छोड़ दी यह मानवी दुनिया।

Tuesday, 21 February 2012

तारक हथियार


शिष्य ने कहा--गुरुदेव!
मुझे धातु से बने मारक हथियार नहीं,
धतुहीन तारक हथियार चाहिए
जो जीवन किसी का न लें
बल्कि जीवनदान दें
जो मुर्दे में जान भले न डाल पाएं
किन्तु घायल के लिए मरहम बन जाएं।

गुरु ने कहा--वत्स!
मृदुलता, विनम्रता, सहृदयता,
उदारता, सहनशीलता, क्षमा, त्याग
और मानवता के लिए अनुराग
ये गुण हर मानव में विद्यमान हैं
तुम अपने अंतरमन के गुण-अवगुणों के ढेर से
छांट-छांटकर जिस दिन इन्हें धारण कर लोगे
तारक अस्त्र से सुसज्जित हो जाओगे
सज्जन बन जाओगे।

Monday, 20 February 2012

कहां खो गया मेरा गांव

मुझको यह अपना ही गांव
अनचीन्हा-सा क्यों लगता है
कहां खो गया पहले वाला मेरा गांव?

वह गुड़गुड़ाती चौपाल
जो हर आने-जाने वाले से करती थी दुआ-सलाम और सवाल
कहां विलुप्त हो गया गांव-पड़ोस वाले रिश्तों का संबोधन!
बुजुर्गों का खांसना-खसकारना
डांटना-अधिकारना
छोटे-बड़े के बीच आंखों की शरम
पड़ोसी के दुख-सुख में सरीक होने का धरम
अलावों पर ठहाके, कहानी और किस्से
मजाकों के मजमे और यारों के घिस्से
सावन के झूले/वह घर-घर दिवाली
फागुन की होली/हुरियारे मवाली
आगत के स्वागत में वह मीठा पानी
बीते जमाने की बीती कहानी
बहन-बेटियों के लिए वह विशेष अपनत्व
पारिवारिक संबंधों का वह अनुपम घनत्व
पावन रिश्तों की वह पावन ठिठोली
वर्जना में भी महकती थी जहां मीठी बोली
पकवानों की सुगंध
आगतों का प्रबंध
खेत-खलिहानों के गीत
दंगल और लोक संगीत
पशु-पक्षियों से प्रेम
रसोई का नेम
गाय को चंदिया और कुत्ते को टूंका
चिड़ियों को चुग्गा और चींटियों को बुक्का
अब तो सब कुछ बदल गया है
मेरे गांव को शहर का रोग पल गया है
फासले बढ़ गए हैं पारिवारिक रिश्तों में
सिमट गए हैं सब अपने-अपने हिस्सों में
जिस कुएं पर कभी पनघट की रौनक थी
उस पर दुबका-सा बैठा है चरस-गांजा बेचने वाला
नीचे ऊंघता-सा बैठा है जूते गांठने वाला
स्कूल की क्यारी में मास्टर ने लगा रखे हैं भांग के पौधे
फूलों के गमले पड़े हैं औंधे
लड़के स्कूल से निकलते-निकलते बन रहे हैं अपराधी
शहर में चली गई है गांव की आधाी आबादी
खेत खत्म होते जा रहे हैं
वहां कल-कारखाने उगते जा रहे हैं
लोग इतने हो गए हैं सयाने
कि एक जमीन के दस-दस लोगों से ले रहे हैं बयाने
पुलिस चौकी खुल गई है चौपाल की जगह पर
दारू का ठेका है अब शीतला-थान की सतह पर
अब सुनाई नहीं देती कोयल की कूक
और कौवों की कांव-कांव
जाने कहां खो गया वह पहले वाला मेरा गांव।

Sunday, 19 February 2012

मेरा अस्तित्व और स्त्री


मेरे विचारों से स्त्री कभी गायब नहीं होती
मैं स्त्री के भीतर जी रहा हूं
स्त्री मेरे भीतर।

प्रकृति के रूप में
शक्ति के रूप में
ऊर्जा के रूप में
मैंने स्त्री को ही पाया है
स्त्री ने ही दिया है मुझे जन्म
जिन्दा रहता है यह अहसास हर वक्त मेरे भीतर
मैं स्त्री की ही गोद में बड़ा हुआ हूं
स्त्री की ही अंगुली पकड़कर खड़ा होना सीखा हूं
स्त्री के ममत्व ने ही सिखाया है मुझे खिलखिलाना
स्त्री के दुग्धपान से ही पाई है मैंने जीवटता
मुझे स्त्री ने ही बताया है आग और पानी का फर्क
स्त्री ही ने दी मुझे भाषा की अभिव्यक्ति
स्त्री ही रही है मेरी पहली पाठशाला
स्त्री का ही विस्तार पाया है मैंने प्रकृति में।

किशोरावस्था में भी स्त्री-स्वर था मुझे कर्णप्रिय
खींचता है मन को स्त्री जाति का आकर्षण
देह और आंखों की भाषा भी मैंने स्त्री से ही सीखी
स्त्री के गुरुत्वाकर्षण ने ही संभाला मुझे युवावस्था में
स्त्री ने ही बांधा मेरे यायावरी मन को
स्त्री ने ही शक्ति दी मुझे समस्याओं से जूझने की
स्त्री के संस्पर्श ने ही भरी है मुझमें ऊर्जा
स्त्री ने ही बनाया है मुझे पूर्ण पुरुष
स्त्री ने ही बनी है मेरी नींद और जागरण
स्त्री ही बनी है मेरी जीवन-सहयात्री
स्त्री ने ही दिया है मुझे परिवार
कैसे विलग कर दूंविचारों से स्त्री को
स्त्री ही है मेरी कामधेनु।

Friday, 17 February 2012

बंदिश में औरत


सहस्रों वर्ष पूर्व
समाज में लड़कियां जवान होतीं
प्रेम करतीं और अपना-अपना घर बसा लेतीं
किसी से कोई विवाद नहीं होता
संबंध निभता तो चलता रहता
नहीं निभता तो टूट जाता
नए संबंधों की डगर फिर चल पड़ती।

समाज में तथाकथित समझदारी आई
लोगों ने अपने परिवारों को अलग-अलग पहचान दी
कोई परिवार पगड़ी के नाम से जाना जाने लगा
कोई तिलक-चंदन से
किसी ने अपने परिवार को तलवार की पहचान दी
किसी ने खुरपी की तो किसी ने हल की
इस तरह चांदी, सोना, तसला, फावड़ा, रुपया, नाव, चारपाई,
झाड़ू, घड़ा, चमड़ा, सींग, पूंछ
अलग-अलग पहचान हो गई समाज में परिवारों की।

प्रेमियों की चर्चा तब कुछ इस तरह चलती--
चांदी परिवार की लड़की नाव-परिवार से बिंध गई
खुरपी-परिवार के लड़के ने तिलक-परिवार से नाता जोड़ लिया
तसला-परिवार की लड़की सोना-परिवार में सज गई
किसी परिवार को इससे अपनी इज्जत तार-तार होती दिखती
किसी को इज्जत में इजाफा होता दिखता
तेवर चढ़े लोगों ने पूरे समाज की पंचायत बुलाई
अपनी-अपनी व्यथा बताई
किया गया चिंतन
हुआ गहन मंथन
निष्कर्ष निकलकर आया
समाज में चार वर्ग बना दिए जाएं
चांदी, रुपया, सोना, तिलक-चंदन आदि परिवारों का एक वर्ग
पगड़ी, तलवार, हल, फावड़ा आदि परिवारों का दूसरा वर्ग
खुरपी, तसला, घड़ा, सींग आदि परिवारों का तीसरा वर्ग
झाड़ू, चमड़ा, घड़ा, सींग आदि परिवारों का चौथा वर्ग
पेशेगत वर्गीकरण के साथ तय हुआ--
लड़कियां अपने-अपने ही वर्ग में घर बसाएंगी
सीमा नहीं लांघेगा परिवार का कोई भी सदस्य।

प्रेमियों का प्रेम करना फिर भी नहीं रुका
फर्क सिर्फ इतना हुआ
पहले खुलेआम होता था प्रेम, अब छिप-छिपकर होने लगा
प्रेम प्रदर्शन के नए तरीके ईजाद कर लिए प्रेमियों ने
घर बसाने का निर्णय होते ही
वे जंगल में चले जाते
बनकर रहते जंगली
परिजन मान जाते तो घर लौट आते
हो जाते बेबस तो कर लेते आत्महत्या।

इस नई समस्या से पीड़ित परिवारों ने
फिर बुलाई समाज की पंचायत
फिर हुआ चिंतन-मनन
तय हुआ सभी परिवारअपनी पहचान को जाति में बदल लें
पुरुष की पहचान जाति और वंश से होगी
स्त्री की कोई पहचान नहीं होगी
स्त्री का सिर्फ धरती की तरह इस्तेमाल होगा
स्त्री का कोई वंश नहीं होगा।

लेकिन प्रेमी युवा हर बंदिश नकारकर करते रहे प्रेम
लांघी जाती रहीं वर्ग और जाति की सीमाएं
भागते रहे प्रेमी जंगल की ओर
बेबस प्रेमी करते रहे आत्महत्या
पीड़ित परिवारों ने फिर बुलाई समाज की पंचायत
फिर तय हुए स्त्री जाति के लिए अंकुश--
लड़कियां घर से बाहर अकेल नहीं जाएंगी
विवाहित महिलाओं को घर से बाहर पर्दे में रहना होगा
घर में भी वे बड़ों से पर्दा करेंगी।

पुरुष प्रधान समाज में
आज तक जारी हैं स्त्रियों पर तरह-तरह की बंदिशें
लेकिन प्रेमियों का प्रेम करना भी जारी है।

Thursday, 16 February 2012

भेड़िए का भय

भेड़िया-भेड़िया-भेड़िया!
जागे-जागो-जागो!
दौड़ो-दौड़ो-दौड़ो!
घेरो-घेरो-घेरो!
मारो-मारो-मारो!
भगाओ-भगाओ-भगाओ!
बचाओ अपने बच्चों को
घर-परिवार को
बकरी, भेड़, मेमनों को
लादो अपना सामान पलायन के लिए
पहुंचो सुरक्षित स्थान पर
जहां भेड़िए की पहुंच न हो
गड्ड-मड्ड सुनाई दे रही हैं ये विभिन्न आवाजें।

किसी को यह नहीं मालूम
भेड़िया है या भेड़िए
हुआ है कोई हादसा
या है सिर्फ आशंका
भेड़ों के रेबड़ की तरह
बदहवास भागे जा रहे हैं लोग
एक-दूसरे के पीछे
भयभीतों को देखकर
कुछ लोग और हो रहे हैं भयभीत
कुछ लोग विहंस रहे हैं
और लगा रहे हैं ठहाके
लेकिन भागमभाग नहीं थम रही।

लोगों की भीड़ सीमा पर पहुंची
उस पार भी भेड़िये के भय का यही था सिलसिला
लोग लादे असबाब आ रहे थे इस पार के लिए
बौखलाए से
थम गए सीमा पर हतप्रभ होकर
अपनी जड़ों से उखड़े लोग
जहां की तहां
संचार-साधन खड़खड़ाए, फड़फड़ाए, घनघनाए
मालूम हुआ--
हर देश, प्रदेश और शहर में छाया हुआ है समान रूप से
अनदेखे भेड़िए का आतंक।

कुछ विद्वानों ने समझाया
समझदारी का मार्ग दिखलाया
उद्योगों का निकलता अंधाधुंध धुआं
उत्सर्जित विभिन्न गैसों का सिलसिला
भेद रहा है आकाशीय सुरक्षा छत को
यानी ओजोन पर्त को
सूर्य का तापमान
भूमंडल को कर रहा है गर्म
जलवायु में हो रहा है परिवर्तन
अतिवृष्टि, सूखा और विभिन्न बीमारियां
भेड़िए की तरह
दनादन निगल रही हैं जिन्दगियां
जरूरत भागने की नहीं
जरूरत है आपदा से निपटने की
संकल्प की
जीवनशैली के कायाकल्प की।

वैज्ञानिकों के पैनल ने दी रिपोर्ट
विकसित देशों का अत्यधिक प्रकृति-दोहन
आधुनिक जीवन शैली
जिम्मेदार है बहुलता से हानिकारक गैसों के उत्सर्जन की
बहुतायत में कार्बन-डाइ-आक्साइड के जनन की
ढूंढ़ने होंगे ऊर्जा के नए स्रोत
करना होगा सभी देशों को प्रण
कि ग्रीनहाउस गैसों पर रखेंगे आनुपातिक नियंत्रण।

विकसित देशों के वैज्ञानिकों के अपने तर्क हैं
दायरे के हित में उनके अपने निष्कर्ष हैं
नहीं हैं तैयार वे गति पर नियंत्रण को
ठुकरा रहे हैं समझौते के हर आमंत्रण को
वे कह रहे हैं डंके की चोट
नहीं है उनकी नीयत में खोट
उनका है तर्क--
यदि प्रकृति का दोहन नहीं किया जाएगा
तो मानव अविकसित युग में लौट जाएगा।

मतभेद की कांव-कांव जारी है
पूरी दुनिया में भेड़िए का भय तारी है
भेड़िया-भेड़िया-भेड़िया!
जागो-जागो-जागो!
दौड़ो-दौड़ो-दौड़ो!

Wednesday, 15 February 2012

तोड़ दो अपनी उदासी

उदास न बैठो बंधु,
मन की खिड़की खोलो
दूर क्षितिज में देखो--
खुशियां महक रही हैं
चहक रही हैं
इंतजार है उन्हें तुम्हारे आमंत्रण का
पौरुषी आवाहन का
आकुल हैं वे उजड़ा सदन सजाने को
गीत-बधाई गाने को।

याद रखो यह बंधु,
बाधाओं से जो निराश हो जाते हैं
जो हताश हो चिर उदास बन जाते हैं
उनके घर खुशियां नहीं
बोझिल गम आते हैं
और आकर पसर जाते हैं
उनका वजूद
दूसरों के लिए भी हो जाता है दुखदायी।

बंधु,
उदासी छील देती है हृदय की भावनाएं
मूंद देती है उम्मीद की हर झिरी
अंधेरा ही अंधेरा गहरा जाता है चहुंओर
अंध-विविर में करने लगते हैं बसेरा--
मनहूसियत के चमकादड़।

बंधु,
तोड़ दो अपनी उदासी
उतार फेंको अपनी निराशा/हताशा
जगाओ अपने पौरुष को
निराशा को चीरकर देखो
खुशियों वाली नई सुबह तुम्हारा इंतजार कर रही है।

खंडहर


बस्ती की वह ककैया र्इंटों की हवेली
जो कभी हंसती-महकती थी
अर्से से पड़ी है वीरान, खंडहर।

उसकी देहरी पर कभी किरणें करती थीं जुहार
सख्त हवाएं करती थीं मनुहार
महफिलें सजा करती थीं जहां
गूंजा करती थी जहां जय-जयकार
आज ध्वंस के प्रहारों ने उसको घेरा है
कहते हैं--
ध्वंस में नव-निर्माण का बसेरा है!

मैंने नहीं पढ़े धर्मशास्त्र
न ही मुझे दर्शनशास्त्र का ज्ञान है
विज्ञान का भी विद्यार्थी मैं नहीं रहा
यदा-कदा मुहावरों में ही सुनी हैं मैंने ये उक्तियां--
कि हर जीव-पदार्थ जीवन चक्र से बिंधा है
हर अस्तित्व को अपना वर्तमान खोना है
नए रूप में परिवर्तित होना है।

अपनी उम्र के उतार पर मैं उद्वेलित हूं
मनन कर रहा हूं अपने शरीर के खंडहर होने
और ढहने को लेकर
विश्लेषित कर रहा हूं अपनी अब तक की जीवन यात्रा को
उस हवेली की तो अनेक गौरव गाथाएं हैं
ढहकर भी वह अर्से तक जिंदा रहेगी लोगों के खयालों में
मैं उपलब्धिविहीन क्या यूं ही अनाम खो जाऊंगा!
क्या मेरी कोई पहचान नहीं रहेगी पीछे!
मैं किसी विषय का विशेषज्ञ नहीं
जिससे लोग मुझे बाद में याद करें
हां, मैं अपने अनुभवों के सत्य को
कविताओं में जरूर उतारता हूं
यह मेरी कविताएं ही शायद
मेरी मौत के बाद
मुझे जिंदा रखें।

Tuesday, 14 February 2012

मेरी दृष्टि में



मैं उन सभी कविताओं को खारिज करता हूं
जो आदमी के सरोकारों से बाबस्ता नहीं
मेरी दृष्टि में बेकार हैं वे कविता
जो अंधेरे में अंधेरे का हिस्सा बन जाती हैं।

मैं यह नहीं कहता
कि  कविता में तितली और भंवरों को प्रतिबंधित कर दिया जाए
या फूल और उनकी महक की बात न की जाए
लेकिन जब अन्नदाता की फसल अन्नदाता को ही खाने लगे
कारखाने  जब मजदूरों के लिए कसाईघर बन जाएं
राजनीति जा लंपटों के लिए हथियार बन जाए
न्यायाधिकारी जब न्याय नहीं फैसला सुनाएं
ऐसे वक्त में चंदा की चांदनी और कोयल की रागनी अलापना
मेरी दृष्टि में अमानवीयता है, असाहित्यिकता है।

आप भले ही मेरी बात से इत्तफाक न रखें
लेकिन यह तो आप मानेंगे ही
कि कविता जिंदगी के लिए होनी चाहिए
जिन्दगी को रास्ता दिखाने वाली होना चाहिए।

इसीलिए मैं उन सभी कविताओं को खारिज करता हूं
जो आदमी के सपनों को मिटाती हैं
मेरी दृष्टि में बेकार हैं वे कविता
जिनका चरित्र लिजलिजा और आत्मकेन्द्रित है
जब आधुनिकता की आड़ में अश्लीलता परोसी जा रही हो
जब समाज में पारिवारिक संबंधों की पवित्रता बिलख रही हो
जब जननी को अपने जिबह होते भू्रण की चीख न सुनाई देती हो
जब आदमी की आदमी से इतनी दूरी हो
कि एक तो रोटी हाथ पर रखकर खाए
और दूसरा आसन पर बैठकर थाली में
ऐसे वक्त में रसरंग के गीत गाना
मेरी दृष्टि में अमानवीयता है, असाहित्यिकता है।

बेशक आप मेरी बात से असहमत हों
आपके पास कविता के कई पहलुओं वाले तर्क भी हों
लेकिन मेरी इस बात से आप बाहर नहीं जा सकते
कि उदर की भूख सबसे ऊपर है
कविता में  उस संवेदना को नकारा नहीं जाना चाहिए।

इसीलिए मैं उन सभी कविताओं को खारिज करता हूं
जो आम आदमी के जेहन में नहीं उतर पातीं
मेरी दृष्टि में बेकार हैं वे कविता
जो शब्दों की गुंजलक में फंसाए रखती हैं अपने अर्थ को
मैं कलावाद का सिरे से विरोधी नहीं हूं
मैं मानता हूं--कलात्मकता होनी ही चाहिए कविता के कहन में
किन्तु जिसके लिए कविता कही जाए
वही उसको समझने से वंचित रह जाए
जिस संवेदना को आप अपनी कविता में आलोड़ित करें
उसे महसूस करने के लिए उपादानों की जरूरत पड़े
ऐसी अमूर्त कविताओं को
मैं सिर्फ मानसिक अय्यासी कहूंगा
और कुछ नहीं!

जब जरूरत है कविताओं में सामयिकता दर्ज करने की
जब जरूरत है कविताओं में ऊर्जा भरने की
जब जरूरत है कविताओं के मरहम बनने की
ऐसे वक्त में कवि का चारण बनना
मेरी दृष्टि में अमानवीयता है, असाहित्यिकता है।

भले ही आप मेरी बात के विरोध में खड़े हों
भले ही आप चारणवृत्ति को कोई सुथरा नाम देकर गर्व करें
लेकिन जब इतिहास हर लम्हे को छानेगा अपनी छलनी में
उस समय आडंबरी कविताएं दुतकारी जाएंगी/धिक्कारी जाएंगी।

सदियों से इंतजार करती औरत

सदियों से दरवाजे पर खड़ी औरत
पलक पांवड़े बिछाए
कर रही है पति का इंतजार।

परदेश गए पति की दीर्घायु के लिए
रख रही है उपवास
मान रही है मन्नतें।

सुबह से शाम तक
डूबी रहती है वह घर के कामकाज में
झाड़ती है घर की धूल और जाले
मूंदती है अभावों की दरारें
बच्चों को तांसते-पुचकारते हुए
बिरहिन खोई रहती है मीठे खयालों में।

अर्से से चिट्ठी-पत्री और खर्चा-पानी न आ पाने को
मानती है पति की कोई मजबूरी
या डाक व्यवस्था में आया अवरोध
कल्पना भी नहीं कर पाती वह
अपने पति के भेड़िया हो जाने की।

जब उसे मालूम होता है
सौतन ने भरमा लिया है उसके पति को
तो वह पति की नहीं
सौतन के मरने की करती है कामना
मानने लगती है इसे भाग्य का दोष
या अपनी तपस्या का खोट
मेहन मजदूरी का मोर्चा संभाल
मन्नतों और उपासना के साथ
नये सिरे से फिर करने लगती है पति का इंतजार।

औरत को पालतूपन की इस मानसिकता से बाहर आना चाहिए
साक्षरता का दामन थाम
अपनी दशा-दिशा खुद तय करनी चाहिए
यह तभी संभव है बंधु,
जब मेरा और तुम्हारा अहं उसके आड़े न खड़ा हो
बल्कि उसका सहयोगी बने
क्या तुम तैयार हो?

Monday, 13 February 2012

कुदरत की सौगात हैं बेटियां


प्यार, दुलार, त्याग
ममता का समंदर
अश्रु, नमन और स्मृतियों का संभरण
संस्कारों का दर्पण हैं बेटियां
कुदरत की सौगात हैं बेटियां।

बेटियां परायी हो जाने पर भी महमहाती हैं घर-आंगन और स्मृतियों में
वे करुणा हैं
विछोह की वरुणा हैं
हर बेटी नई देहरी-आंगन और आकाश पाकर
भीगे कंठ और शब्दों को मधु में पगाकर
सजाती हैं सुनहरे सपने
सतरंगी प्रकाश के
सुरभित वातास के
दुनियावी रणभेरी के
जीवन की चकफेरी के
घर में अजस्र हंसी की उजास होती हैं बेटियां
कुदरत की सौगात होती हैं बेटियां।

चैन और शांति

जिस पर किया जाए सबसे अधिक विश्वास
वही कर दे जब घात
तो सपनों के बादल कड़कड़ाते हैं
मस्तिष्क की शिराओं में लहू के उबाल आते हैं
नहीं देता कुछ भी दिखाई
सारी दुनिया लगती है हरजाई
मन हो जाता है भुन्न
विवेक हो जाता है सुन्न
घेरने लगते हैं कुविचार
ढहने लगती हैं संबंधों की मीनार
दरअसल ऐसा इसलिए होता है
कल्पना में हमने
अपेक्षाओं महल खड़ा किया होता है
वह महल जब टूटता है
तो हमारी कल्पना को कूटता है
जिस दिन हम प्रतिफल की अपेक्षा छोड़ देंगे
अपना नाता चैन और शांिित से जोड़ लेंगे।

Friday, 10 February 2012

हम हैं महान संस्कृति के वारिस


हम हैं महान संस्कृति के वारिस
सब बराबर हैं हमारे यहां।

युगों लंबी परंपरा है हमारी
राजा हो या रंक
सभी एक आकाश के नीचे रहते आए हैं
सभी किसान का बोया अन्न खाते हैं
नदी, कुओं, बावड़ियों का पानी पीते हैं
जीने के अपने-अपने सुभीते हैं।

आधुनिक युग में भी
हमारी सभ्यता ने दिखाई है उदारता
दी है हर नागरिक को
लोकतंत्र की आरती उतारने की स्वतंत्रता
जयकारे बोलने की स्वतंत्रता
मतदान करने की स्वतंत्रता
हम हैं महान संस्कृति के वारिस
सब बराबर हैं हमारे यहां।

हमारी महान संस्कृति से सराबोर लोकतंत्र
सबको देता है मनमर्जी से जीने का अधिकार
जो बच्चे नहीं पढ़ना चाहते
मिल जाता है उन्हें अनपढ़ रहने का अधिकार
कर सकते हैं वे अपनी उच्च संस्कृति को समृद्ध
नंगे बूचे रहकर
साधु-संन्यासी बनकर
ओझा-तान्त्रिक बनकर
या ठग-विद्या में परारंगत होकर
हम हैं महान संस्कृति के वारिस
सब बराबर हैं हमारे यहां।

हमारे लोकतंत्र में
चमत्कार को है नमस्कार
हर व्यक्ति सामर्थ्यानुसार अपना सकता है रोजगार
बन सकता है श्रमिक, साहूकार, उद्यमी
शिल्पकार, दलाल, अनुसंधानी
ललित कलाओं का उत्थानी
छल-छंद का कारोबारी या भिखारी
किसी पर कोई बंदिश नहीं
चाहे तो उच्च वर्ग का व्यक्ति
रह सकता है निम्न वर्ग का लबादा ओढ़कर
या निम्न वर्ग का व्यक्ति
उच्च वर्ग का बनकर दिखा सकता है अपनी प्रतिभा
महिलाएं भी हैं इनमें शामिल
उन्हें भी है पूरी स्वतंत्रता
वे बनें लोकतंत्र का हिस्सा
या संभालें घर-परिवार
करें चाकरी या निभाएं पुरातन संस्कार
पुरुष की तरह कला-संस्कृति में हों पारंगत
या अपनाएं देह व्यापार
हम हैं महान संस्कृति के वारिस
सब बराबर हैं हमारे यहां।

हमारे संस्कृति ने
पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ों
पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं
कीट-पतंगों, ऋतुओं
सबको दिया है आदर-सम्मान
माना है अपना देवता
भरे पड़े हैं हमारे ग्रंथ स्तुति वंदना में
अतिथि को भी माना है हमने देवता
स्त्री को दिया है देवी का दर्जा
हमारी संस्कृति में बाहुल्य है सम्मान का
हम अतिथि के सम्मान में
अपनी स्त्रियां परोसते आए हैं
नियोग विधि से चलाए हैं हमने अपने वंश
हम हैं महान संस्कृति के वारिस
सब बराबर हैं हमारे यहां।

Thursday, 9 February 2012

तथाकथित असभ्य अतीत


गांव को शहर ने इठलाती सुंदरियों की तरह मोहा
गांव दीवानों की तरह दौड़ा उसे बाहों में भरने को
ज़मीन और आसमान का फर्क़ निकला
शहर के आवरण और आचरण में
हाथ लगा सिर्फ छलावा।

गांव को पीछे पसरी दिखती है अपनी मूर्खता
फलदार वृक्षों की छाया
खेत खलिहानों का हरहरापन
कुनकुनी धूप और ठंडी बयार
मिट्टी के घरों का तृप्ति भरा चैन
पितृजनों की छत्रछाया
चांद-तारों भरा अपना आकाश
चूड़ी, पायल, खांसने-खसकारने के संकेत
रिश्तों का समीकरण
व्यवहारों को व्याकरण
पक्षियों के चिचियाने का अपनापन
पशुओं का मूक आत्मिक व्यवहार
छाछ, लोनी, महेरी का स्वाद
चूल्हे की रोटी
गुड़ का मलीदा
दूध-दलिये का नाश्ता
चने का साग
अलाव में भुनी आलू-मटर-सकरकंदी
भले ही कहो इसे पिछड़ी मानसिकता
चैन की बंसी की वह धुन बहुत ही मधुर थी गांव के लिए।

शुरू हुई गांव की पहली शिक्षा-यात्रा
भाया मदमाती बंजारन के यौवन-सा कस्बा
चितवन का नशा
गदराई देहयष्टि
रूप सज्जा की झिलमिल
मोहनी बंजारन का जादू चल गया
गंवई लगने लगा गांव को अपना परिवेश।

गांव को कस्बाई आंगन भाने लगा
मन साप्ताहिक छुट्टी में भी घर जाने से कतराने लगा
बंजारन ने सिखलाया बीजगणित, समीकरण, वर्गमूल
बदल दी वैचारिकता आमूलचूल
महीने-पन्द्रह दिन में गांव जब लौटता अपने घर
उसे ग्रामीण जीवन लगता बेशऊर
ज्ञान-विज्ञान की किताबी बातें
मन के आकाश को भर देती रंग-बिरंगी पतंगों से
पुलकित होता मन उमंगों से।

शहर से खबर उड़कर आती नई फिल्मों की
हर महीने गढ़ लेता गांव उसके लिए बहाना
शाम को दूर से झिलमिलाती दिखती शहर की लाइट
रात के अंधेरे सन्नाटे में
प्रेम और सौंदर्य से भरपूर
अंगराग, कुंकुम, मेहंदी से गंधाती
सजीले परिधानों में सजी
हीर-कनक की नथनी-सी चमकाती
हार, सीतारामी, मोतीमाला, हथफूल गमकाती
कंगन और चूड़ियों की मद्धिम खनखन
शीशफूल, छाप, करधनी, पायल, नूपुर की  झुनझुन
आहिस्ता-आहिस्ता सेज की ओर बढ़ती
रुनझुन पग धरती रमणी-सा
आमंत्रण देता फिल्मों की आदर्श नारी-सा शहर।

बंजारन से टूटने लगा गांव का भरम
अलसाया-सा दिखने लगा उसे उसका रंग-रूप
देह से आती कूड़े के ढेर और नालियों की दुर्गंध
बोली से उबकती गालियों की गंद
लुभाते उसे शहर के शिक्षा के अगले पायदान
मन आतुर होता भरने को उड़ान
घूंघट के पट में झिलमिलाती नथनी-सी लगतीं शहर की लाइटें
शशोपंज में कटे गांव के कुछ दिन
फिर एक दिन कर दिया उसने शहर के लिए प्रस्थान।

शहर के पक्के घर-भवन
विशाल प्रासाद
गगनचुंबी अट्टालिकाएं
मनमोहते रंगबिरंगे उद्यान
जगमगाते आधुनिक बाजार
विभिन्न सामग्रियों से ठसाठस भरे गोदाम
मनोरंजन के अनेकानेक साधन
शिक्षा के बहुआयामी संस्थान
तरह-तरह की अकादमियां
संगीतघर-नाट्यघर
आश्चर्यजनक कलाओं के प्रदर्शन-घर
पुलिस, कोतवाल
न्यायालय, जेल
राजनीति के खेल
एक नई दुनिया दिखी शहर में
गांव को हर कदम पर हुआ पुलकन का अनुभव
ठीक उसी तरह
जैसे पहली बार होता है ससुराल में।

गांव पर शहर का खुमार गढ़िया गया
प्रतिदिन मोहता शहर की नई चितवन का नज़ारा
शहर ने ‘तू-तेरे’ की बोली का अपनत्व छुड़वाया
‘जी-जनाब’ का परायापन खिखलाया
मीठी-मीठी नींद में बढ़ता ही रहा सपनों का संसार
गांव ने खूब उलीची परिजनों के पसीने की गाढ़ी कमाई
नाचता-ठुमकता रहा वह शिक्षा के पायदानों पर
ज़ुबान गिटगिटाना सीख गई फिरंगी जुमले
सोच में हो गया परिवर्तन
लिपिस्टिक और सुवासित प्रसाधनों से सुसज्जित
आभरणहीन और अल्पवस्त्रा
आंखों में लिए मदिरा के प्याले
छरहरी देह की धनी
तर्कशील-छबीली
स्वभाव की लचीली
निर्भीक और साहसी
हर कदम साथ चलने को आतुर
पुरानी लीकों को ठुकराती
क्लब, आडीटोरियम, मॉल
होटल, मोटल, रेस्टोरेंट की समर्थक
विचारों की भव्यता
दिखाती शासन की क्षमता
मन को मोह गई आधुनिक सभ्यता।

‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है’
भरमाता-सा लगता है अब गांव को यह तर्क
प्रगति-पथ को पकड़
अपनी जड़ को छोड़ देना
बन जाना अपने ही वृक्ष के लिए अमरबेल
गांव को नहीं भाता
उसका मन कहता है--
बसा भले ही ले मनुष्य दूसरे ग्रहों पर दुनिया
उसके सिर पर लदा रहेगा उसका तथाकथित असभ्य अतीत।

Wednesday, 8 February 2012

पुल की महत्ता


मैं मानता हूं
बहुत फर्क है पुल बनाने और खाई पाटने में
खाई पाटने में युग लगते हैं
पुल बनाने में लगते हैं चंद वर्ष/महीने/दिन
खाई पाटने से मिलती है भव्यता, अखंडता, एकता
पुल बनाने से बनते हैं व्यावसायिक संबंध
खई पाटने से दो ज़मीन जुड़कर होती हैं एक
पुल बनाने से एक ज़मीन को मिलता है दूसरी का पड़ोस
खाई पाटने वाला अपनी आंखों में देखता है कल
पुल बनाने वाला देखता है वर्तमान।

भाईजान! खाई पाटते हैं युगपुरुष और उनके पथगामी
लेकिन अपनी हर सांस का गणित विचारने वाले कारीगरों को
सासें चुकने से पहले
पुल बनाना लगता है श्रेयस्कर
मानते हैं वे
न होने से कुछ अच्छा है।

Tuesday, 7 February 2012

मेरे गर्भस्थ शिशु (एक गर्भवती महिला का अपने गर्भस्थ शिशु से एकालाप)


मेरे गर्भस्थ शिशु!
तुम जो भी हो, लड़का या लड़की
मेरी बात ध्यान से सुनना
यदि तुम लड़के हो
तो जरूरी है तुम्हारे लिए यह जानना
कि किसी भी चक्रव्यूह के बारे में
मैं कुछ नहीं जानती
न प्रवेश के बारे में
न निकलने के बारे में
तुम्हारे पिता से कभी कोई बात ही नहीं हुई मेरी
किसी चक्रव्यूह के बारे में
हालांकि लड़ वे भी रहे हैं ज़िन्दगी की महाभारत
शाम को लौटते हैं वे लस्त-पस्त
उन्हें समय ही नहीं मिलता
रोटी-सब्जी और नींद से इतर बातें करने का
इसीलिए तुम्हारे पिता
नहीं चाहते थे अभी कोई संतान।

फिर भी ओ मेरे सजीले स्वप्न!
मैंने तुझे अपनी देह के पिंजरे में पाला है
परखनी है मुझे अपनी कोख
उससे बांझपन का दाग मिटाना है
मैंने मना लिया हैतेरे पिता को
मैं तुझे नष्ट नहीं होने दूंगी
प्रसव के दर्द सहूंगी और तुझे जन्मूंगी।

मेरे अन्चीन्हे गर्भस्थ शिशु!
मुझे चिन्ता तेरी परवरिस की है
भूखा तो नहीं मरने दूंगी मैं तुझे
जब तक मेरे आंचल में दूध उतरेगा, तुझे पिलाऊंगी
जरूरत पड़ने पर अपने हिस्से का भोजन भी खिलाऊंगी
चिन्ता मेरी यह है
मुफलिसी में तू निष्णात वीर कैसे बन पाएगा?
जीवन की महाभारत में शत्रुओं से कैसे जूझ पाएगा?
सगे संबंधी भी मिलेंगे तुझे
ज्ञान की पूंजी बिना तू उनसे कैसे पार पएगा?

मेरे प्यारे गर्भस्थ शिशु!
ध्यान से सुनना मेरी बात
आज से तुम अपना एक कान
मेरे पेट से लगाए रखना
तुम्हारे तजुर्बे के लिए
मैं रोज पूछूंगी तुम्हारे पिता से
उनके जीवन संग्राम के बारे में
कि कैसी-कैसी व्यूह रचना करनी पड़ती है उन्हें
किन-किन संकटों का करना पड़ता है सामना
किन-किन पैंतरों से जूझते हैं वे--
अपना अस्तित्व बचाने के लिए
तुम ध्यान से सुनना
अभिमन्यु की तरह मन ही मन गुनना हमारी बातों को
इस जमाने के आचार-व्यवहार को
इस  समय तुम्हें फुर्सत ही फुर्सत होगी
हो सके तो भविष्य का खाका बुनना।

मेरे प्यारे गर्भस्थ अंश!
यदि तुम लड़की हो
तब तो अत्यंत जरूरी है तुम्हारे लिए यह जानना
कि बहुत मुश्किल है इस बहशी ज़माने में
लड़कियों को पालना
यहां मानव रूपी भूखे भेड़िये
चबा जाते हैं अकेली लड़की को
सेंध लगाकर उठा ले जाते हैं उन्हें असुरक्षित घरों से
बेच देते हैं उन्हें ज़िदा गोश्त के शोरूमों में
बच निकलती हैं जो इन भेड़ियों से
उन्हें स्वयं मरना होता है शर्म खाकर
वर्ना दूभर कर देता है यह ज़माना
बदलचन बताकर
इसीलिए बहुत से परिवारों ने
लड़कियों को जन्म देना ही बंद कर दिया है
जांच कराकर मालूम कर लेते हैं कि गर्भ में क्या है?
लड़की होती है तो कत्ल करा देते हैं
गर्भ में ही भ्रूण का।

मेरे गर्भस्थ फल!
एक कारण और भी है लड़कियों की उपेक्षा का
शादियों में दहेज का चलन है
आडंबरों का दिखावा है
दूल्हे खरीदे जाते हैं मोलभाव से
लड़की की शादी को लेकर
मां-बाप की छाती भर जाती है घाव दर घाव से
इसीलिए अनेक घरों में पैदा होते ही
मार दी जाती हैं लड़कियां
कोई भी खोलना नहीं चाहता अपने घरों में
आफत की खिड़कियां।

मेरे गर्भस्थ प्रेम पुष्प!
पंडित आचार्यों के पोथी-ग्रंथ
समाज के मिथक
प्रचलित किंवदंतियां
पुत्र को कुलदीपक/कुलतारक
और पुत्री को कर्ज की गठरी बताते हैं
पुत्रमोही हो गया है समाज
पुत्रियों के ज़िन्दगी पर गिरा रहा है वह गाज।

मेरे प्रिय गर्भस्थ शिशु!
तुम जो भी ह, लड़का या लड़की
मेरी बात से ध्यान से सुनना
मैं चाहती हूं
मेरी संतान में दृढ़ता हो, वीरत्व हो
जुझारूपन हो
कुरीतियों से लड़ने का साहस हो
सच बताना
क्या तुम लड़ सकोगे कुरीतियों से?
चल सकोगे सत्य की राह पर मेरे साथ-साथ?

मेरे अंश!
कायर और कलंकित होकर जीने से
न जन्मना ही अच्छा है
तुम्हारी क्या इच्छा है?
मेरी कोख में अमृत और गरल दोनों की ही धाराएं हैं
अनिच्छा जागृत हो गई हो संसार में आने के प्रति
तो गरल पी लेना, मौन हो जाना
तुम्हारे साथ मुझे भी मुक्ति मिल जाएगी
देह-बंधन से,  इस संसार से
और यदि जूझने की जीवटता है तुम्हारे पास
तो खिलखिलाना,  हाथ-पैर चलाना
मैं समझ जाऊंगी
मेरा आने वाला कल अमृत पीकर आ रहा है।

Monday, 6 February 2012

शब्द-2


हर शब्द है एक भवन
जो अक्षर तत्वों की चिनाई से बनता है
जिसमें अनहद नाद का अंश आकर बसता है।

हर शब्द की अलग है गंध
सत्ता/महत्ता
शब्द भी होते हैं तामसी/सात्विक
उग्र और विनम्र
उनमें भी होती हैं श्रेणियां/जातियां
करते हैं वे मित्रता भी
निभाते हैं शत्रुता भी
अपने वर्ग अथवा सजातीय के साथ
शब्दों में भी रहती है अंतरंगता
वाचालता
यदि गुण मिल जाएं
तो विधर्मी शब्द को भी कर लेते हैं आत्मसात
वर्ना वाक्य में साफ दिखलाते हैं पदाघात।

बंधु,
शब्दों को हम मानवीय दृष्टि से देखें
तो शब्दकोश लगेगा हमें एक देश के मानिंद
शब्द उसमें रहने वाले नागरिक
जो संचालित होते हैं व्याकर्णिक संविधान से
हम सीख सकते हैं
शब्दों से सभ्य नागरिक बनकर रहना
शब्दकोश में शब्द कभी उपद्रव नहीं करते।

Sunday, 5 February 2012

शब्द-1


शब्द के पीछे भी होते हैं शब्द
रक्तरंजित, अपंग, मौन
अंसुआते, कराहते, कसमसाते
अक्षर-अक्षर बिखरे हुए
जो दिखाई नहीं देते।

जिन शब्दों में हमें दिखता है उल्लास
छिपा हो सकता है उनके पीछे बागी शब्दों का क्रोध
दागी शब्दों का उच्छवास
शालीन शब्दों के रन्ध्रों में
संभव है बह रहा हो
सदियों पहले का पिघला दर्द
कभी ‘खास’ रहे शब्द ‘आम’ हो जाने की टीस लिए
दिख रहे हों आज हमें उच्छृंखल।

बहुत से शब्द पहले ‘आम’ नहीं थे
‘खास’ लोगों के पास शब्दकोश रहता था पहरे में
आसन से फेंके गए गले-सड़े शब्द ही
सुथराकर इस्तेमाल करता था आम समाज
महल, हवेलियों
दरबार, दरबारियों
आश्रम, रंगशालाओं में और विद्व सभाओं में
हनकते और खनकते थे सजे हुए शब्द।

इतिहास पलटकर देखो
शब्द ही गूंजे हैं कोपभवनों में
शब्दों से ही द्रवित हो होकर
राजपाट छोड़ राजा बने हैं बनवासी
शब्दों के कारण ही हुआ है महाभारत
परिजनों की हत्या या लूट
या किसी भी शत्रुता के पीछे
खड़े मिलेंगे तुम्हें शब्द ही
शब्द ही करते हैं तिरष्कृत और पुरस्कृत।

बंधु,
जब-जब हो तुम्हारा अनगढ़ शब्दों से सामना
उन्हें इज्जत बख्शना
दिल की जाजम पर भले ही मत बैठाना
पर दुतकारने की गलती मत दुहराना
सीख सको तो सीखना
शब्द हमें जुड़ना सिखाते हैं।

Saturday, 4 February 2012

धरती की मिट्टी का गीलापन


धरती की मिट्टी में जो गीलापन है
इतिहास के आंगन में हुए नरसंहार
कापालिक क्रियाओं में दी गई अनगिनत बलियों
दंगे-फसाद  और उन्मादी हत्याओं
सत्ता के लालच में किए गए खून-खराबे
अनगिनत जीव हत्याओं
धर्म के नाम पर बहे रक्त की बाढ़ का है
धरती के इस गीलेपन में शामिल हैं असंख्य आंसू भी
इतिहास और उससे परे अनलिखे इतिहास के।

पहचानी जा सकती है मिट्टी में रक्त की ललाई
सूंघी जा सकती है लहू की गंध
महसूसी जा सकती है मिट्टी में  मिली असंख्य सांसों की गर्माहट
सुना जा सकता असहायों का रुदन
जरूरत बस संवेदनाओं की है
कोमल भावनाओं की है।

ये वन-उपवन, बाग-बगीचे
फल और फूलों की बहार
उपहार हैं धरती के गीलेपन का
खाद बने खून और आंसू के सीलेपन का.

आओ हम कामना करें
मनुष्य में क्रूरता और वैमनस्यता न पनपे
उदारता का वास हो
ईर्ष्या का नाश हो।

Thursday, 2 February 2012

प्यासी नदी



अब नहीं बह रही
वह उज्जवला हंसती नदी
हांफती और कांपती-सी दिख रही
सूखी पड़ी हंसती नदी।

धार उसकी जल गई
रह गई श्मशान-सी सूनी नदी
मछुआरे जाल लेकर चले गये
गीले तटबंधों की तलाश में
रेत की अब तपन सहती जी रही
नेह की भूखी नदी।

बसंत में गुलमोहर चहकता है
सरजने को अमलतास लहकता है
नखलिस्तान का हर फूल महकता है उन्मत्त पराग से
किन्तु बबूल को हर मौसम में झेलनी है कांटों की त्रासदी
पावस ऋतु में
भले ही भरभराए सूखी नदी का दामन
लहरों, मछलियों, सीपों और शैवालों से
प्यार का संबंध नहीं रख पाएगी सूखी नदी
सबका लगाव है अब सदाबहार तलहटी से
सूखी नदी हो गई है उनके लिए
थोथी नदी।

अब नहीं बह रही
वह उज्जवला हंसती नदी
हांफती और कांपती-सी दिख रही
सूखी पड़ी प्यासी नदी।